"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 159": अवतरणों में अंतर
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यदि हम यह मान लें कि शरीर सदा ही वंशनुक्रमिक विकास से निर्मित होता है , अचेतन प्रकृति और तदनुस्यूत प्राणशक्ति शरीर - निर्माण का यह कार्य किया करती है, इसमें व्यष्टिगत अंतरात्मा के करने की कोई बात नही, तो मामला सीधा हो जाता है। तब यही मान लेना पडेगा किसी शुचि और महत् वश के विकास - क्रम से ही यह अन्नमय और मनोमय शरीर भागवत - अवतार के उपयुक्त तैयार होता है और तब अवतरित होने वाले भगवान् उस शरीर को धारण कर लेते हैं। परंतु गीता के इसी अवतारवाले श्लोक में पुनर्जन्म का सिद्धांत स्वयं अवतार पर भी हिम्मत तक के साथ घटाया गया है, और पुनर्जन्म के संबंध में सामान्य मान्यता यही है कि पुनर्जन्म ग्रहण करने वाला जीव अपने पिछले आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक विकास के अनुसार अपने मनोमय और भौतिक शरीर को निर्धारित करता या यूं कहें कि तैयार करता है। जीव स्वयं अपना शरीर निर्माण करता है, उनका शरीर उससे पूछे बिना यूंही तैयार नहीं कर दिया जाता । तो क्या इससे यह समझ लें कि सनातन या सत्ता अवतार अपने अनुकूल अपना मनोमय और अन्नमय शरीर मानव- विकास की आवश्यकता और गति के अनुसार आप ही निर्माण करते और इस तरह युग - युग में प्रकट हुआ करते हैं? इसी तरह के किसी एक भाव से कुछ लोग विष्णु के दस अवतारों की व्याख्या करते हैं। पहले कई पशुरूप , बाद में नरसिंह - मूर्ति, तब वामन - मूर्ति , उसके बाद प्रचंड आसुरिक परशुराम, फिर देव - प्रकृति - मानव महत्तर राम, इसके बाद सजग आध्यात्मिक बुद्ध , और काल के हिसाब से पहले पर स्थान के हिसाब से अंतिम, पूर्ण दिव्य भावापन्न मुनष्य श्रीकृष्ण - क्योंकि आखिरी अवतार कल्कि केवल श्रीकृष्ण के द्वारा आरंभ किये हुए कर्म को ही संपन्न करते हैं, पहले के अवतार समस्त संभावनाओं से युक्त जिस महत्व प्रयास को प्रस्तुत कर गये हैं , बल्कि उसीको शक्ति देर सिद्ध करते हैं । हमारी आुधनिक मनोवृत्ति के लिये इसे स्वीकार करना कठिन है, किंतु ऐसा मालूम होता है कि गीता की भाषा का रूख इसी ओर है। अथवा जब गीता इस समस्या का साफ तौर पर हल नही करती तक हम अपने किसी दूसरे तरीके से इस प्रश्न को हल कर सकते हैं और कह सकते हैं कि अवतार का शरीर तो जीव के द्वारा निर्मित होता है पर जन्म से ही भगवान उसे धारण करते हैं, अथवा यह भी कह सकते हैं कि इस शरीर को अर्थात् प्रत्येक मानव मन और शरीर के आध्यात्मिक पितर प्रस्तुत करते हैं। इस तरह से कहना अवश्य ही गूढ़ रहस्यमय क्षेत्र की गहराई में प्रवेश करना है कि जिसकी बातें आधुनिक बुद्धिवादी लोग अभी तो सुनना ही नहीं चाहते ; परंतु जब हमने अवतार का होना मान लिया जब रहस्यमय क्षेत्र में तो प्रविष्ट हो ही गये और जब प्रतिष्ट हो गये तो एक - एक कदम मजबूती से रखते हुए बढ़ते चलना ही उत्तम है। | यदि हम यह मान लें कि शरीर सदा ही वंशनुक्रमिक विकास से निर्मित होता है , अचेतन प्रकृति और तदनुस्यूत प्राणशक्ति शरीर - निर्माण का यह कार्य किया करती है, इसमें व्यष्टिगत अंतरात्मा के करने की कोई बात नही, तो मामला सीधा हो जाता है। तब यही मान लेना पडेगा किसी शुचि और महत् वश के विकास - क्रम से ही यह अन्नमय और मनोमय शरीर भागवत - अवतार के उपयुक्त तैयार होता है और तब अवतरित होने वाले भगवान् उस शरीर को धारण कर लेते हैं। परंतु गीता के इसी अवतारवाले श्लोक में पुनर्जन्म का सिद्धांत स्वयं अवतार पर भी हिम्मत तक के साथ घटाया गया है, और पुनर्जन्म के संबंध में सामान्य मान्यता यही है कि पुनर्जन्म ग्रहण करने वाला जीव अपने पिछले आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक विकास के अनुसार अपने मनोमय और भौतिक शरीर को निर्धारित करता या यूं कहें कि तैयार करता है। जीव स्वयं अपना शरीर निर्माण करता है, उनका शरीर उससे पूछे बिना यूंही तैयार नहीं कर दिया जाता । तो क्या इससे यह समझ लें कि सनातन या सत्ता अवतार अपने अनुकूल अपना मनोमय और अन्नमय शरीर मानव- विकास की आवश्यकता और गति के अनुसार आप ही निर्माण करते और इस तरह युग - युग में प्रकट हुआ करते हैं? इसी तरह के किसी एक भाव से कुछ लोग विष्णु के दस अवतारों की व्याख्या करते हैं। पहले कई पशुरूप , बाद में नरसिंह - मूर्ति, तब वामन - मूर्ति , उसके बाद प्रचंड आसुरिक परशुराम, फिर देव - प्रकृति - मानव महत्तर राम, इसके बाद सजग आध्यात्मिक बुद्ध , और काल के हिसाब से पहले पर स्थान के हिसाब से अंतिम, पूर्ण दिव्य भावापन्न मुनष्य श्रीकृष्ण - क्योंकि आखिरी अवतार कल्कि केवल श्रीकृष्ण के द्वारा आरंभ किये हुए कर्म को ही संपन्न करते हैं, पहले के अवतार समस्त संभावनाओं से युक्त जिस महत्व प्रयास को प्रस्तुत कर गये हैं , बल्कि उसीको शक्ति देर सिद्ध करते हैं । हमारी आुधनिक मनोवृत्ति के लिये इसे स्वीकार करना कठिन है, किंतु ऐसा मालूम होता है कि गीता की भाषा का रूख इसी ओर है। अथवा जब गीता इस समस्या का साफ तौर पर हल नही करती तक हम अपने किसी दूसरे तरीके से इस प्रश्न को हल कर सकते हैं और कह सकते हैं कि अवतार का शरीर तो जीव के द्वारा निर्मित होता है पर जन्म से ही भगवान उसे धारण करते हैं, अथवा यह भी कह सकते हैं कि इस शरीर को अर्थात् प्रत्येक मानव मन और शरीर के आध्यात्मिक पितर प्रस्तुत करते हैं। इस तरह से कहना अवश्य ही गूढ़ रहस्यमय क्षेत्र की गहराई में प्रवेश करना है कि जिसकी बातें आधुनिक बुद्धिवादी लोग अभी तो सुनना ही नहीं चाहते ; परंतु जब हमने अवतार का होना मान लिया जब रहस्यमय क्षेत्र में तो प्रविष्ट हो ही गये और जब प्रतिष्ट हो गये तो एक - एक कदम मजबूती से रखते हुए बढ़ते चलना ही उत्तम है। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> |
०७:२६, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
यदि हम यह मान लें कि शरीर सदा ही वंशनुक्रमिक विकास से निर्मित होता है , अचेतन प्रकृति और तदनुस्यूत प्राणशक्ति शरीर - निर्माण का यह कार्य किया करती है, इसमें व्यष्टिगत अंतरात्मा के करने की कोई बात नही, तो मामला सीधा हो जाता है। तब यही मान लेना पडेगा किसी शुचि और महत् वश के विकास - क्रम से ही यह अन्नमय और मनोमय शरीर भागवत - अवतार के उपयुक्त तैयार होता है और तब अवतरित होने वाले भगवान् उस शरीर को धारण कर लेते हैं। परंतु गीता के इसी अवतारवाले श्लोक में पुनर्जन्म का सिद्धांत स्वयं अवतार पर भी हिम्मत तक के साथ घटाया गया है, और पुनर्जन्म के संबंध में सामान्य मान्यता यही है कि पुनर्जन्म ग्रहण करने वाला जीव अपने पिछले आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक विकास के अनुसार अपने मनोमय और भौतिक शरीर को निर्धारित करता या यूं कहें कि तैयार करता है। जीव स्वयं अपना शरीर निर्माण करता है, उनका शरीर उससे पूछे बिना यूंही तैयार नहीं कर दिया जाता । तो क्या इससे यह समझ लें कि सनातन या सत्ता अवतार अपने अनुकूल अपना मनोमय और अन्नमय शरीर मानव- विकास की आवश्यकता और गति के अनुसार आप ही निर्माण करते और इस तरह युग - युग में प्रकट हुआ करते हैं? इसी तरह के किसी एक भाव से कुछ लोग विष्णु के दस अवतारों की व्याख्या करते हैं। पहले कई पशुरूप , बाद में नरसिंह - मूर्ति, तब वामन - मूर्ति , उसके बाद प्रचंड आसुरिक परशुराम, फिर देव - प्रकृति - मानव महत्तर राम, इसके बाद सजग आध्यात्मिक बुद्ध , और काल के हिसाब से पहले पर स्थान के हिसाब से अंतिम, पूर्ण दिव्य भावापन्न मुनष्य श्रीकृष्ण - क्योंकि आखिरी अवतार कल्कि केवल श्रीकृष्ण के द्वारा आरंभ किये हुए कर्म को ही संपन्न करते हैं, पहले के अवतार समस्त संभावनाओं से युक्त जिस महत्व प्रयास को प्रस्तुत कर गये हैं , बल्कि उसीको शक्ति देर सिद्ध करते हैं । हमारी आुधनिक मनोवृत्ति के लिये इसे स्वीकार करना कठिन है, किंतु ऐसा मालूम होता है कि गीता की भाषा का रूख इसी ओर है। अथवा जब गीता इस समस्या का साफ तौर पर हल नही करती तक हम अपने किसी दूसरे तरीके से इस प्रश्न को हल कर सकते हैं और कह सकते हैं कि अवतार का शरीर तो जीव के द्वारा निर्मित होता है पर जन्म से ही भगवान उसे धारण करते हैं, अथवा यह भी कह सकते हैं कि इस शरीर को अर्थात् प्रत्येक मानव मन और शरीर के आध्यात्मिक पितर प्रस्तुत करते हैं। इस तरह से कहना अवश्य ही गूढ़ रहस्यमय क्षेत्र की गहराई में प्रवेश करना है कि जिसकी बातें आधुनिक बुद्धिवादी लोग अभी तो सुनना ही नहीं चाहते ; परंतु जब हमने अवतार का होना मान लिया जब रहस्यमय क्षेत्र में तो प्रविष्ट हो ही गये और जब प्रतिष्ट हो गये तो एक - एक कदम मजबूती से रखते हुए बढ़ते चलना ही उत्तम है।
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