"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 181": अवतरणों में अंतर

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वहां प्रकृति के गुणों की विषम क्रीड़ा प्रत्यक्ष है, वहां कामना का वेग है , व्यक्तिगत इच्छा , भाव या कर्म का खेल है , सुख - दुःख की द्वन्द्वात्मक गति है या वह उद्विग्न या उद्वेगजनक आनंद है जो सच्चा आध्यात्मिक आनंद नहीं , बल्कि एक प्रकार की मानसिक तृप्ति है जिसके साथ अनिवार्य रूप से मानसिक अतृप्ति का प्रतिक्षेप या प्रतिरूप भी लगा रहता है। जीव में जहां कहीं विषमता है वहां ज्ञान से स्खलन है , सर्वसमाहारक और सर्वसमन्वयकारक ब्रह्मोक्य में और सचराचर जगत् के एकत्व में सुप्रतिष्ठ रहने का अभाव है। इस समत्व के द्वारा ही कर्मयोगी को कर्म करते समय भी यह ज्ञान रहता है कि वह मुक्त है।गीता ने जिस समत्व का विधान किया है उसका स्वरूप है आध्यात्मिक, वह अपने स्वभाव और व्यापकता में उच्च और विश्वव्यापी है ओर यही इस विषय में गीता के उपदेश की विशेषता है। नही तो समत्व का उपदेश मात्र देकर यह कहना कि ‘ यह मन , अनुभव और स्वभाव की एक अत्यंत वांछनीय अवस्था है जिसमें पहुंचकर हम मानव - दुर्बलता के ऊपर उठ जाते हैं ,’ गीता की अनूठी विशेषता नहीं है। ऐसा समत्व तो दार्शनिक आदर्श और साधु - महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है। गीता इस दार्शनिक आदर्श और साधु - महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है। गीता इस दार्शनिक आदर्श को स्वीकार अवश्य करती है पर उसे बहुत दूर ऐसे उच्च प्रदेशों में ले जाती है जहां हम अपने - आपको अधिक विशाल और विशुद्ध वातावरण में सांस लेते हुए पाते हैं।  
वहां प्रकृति के गुणों की विषम क्रीड़ा प्रत्यक्ष है, वहां कामना का वेग है , व्यक्तिगत इच्छा , भाव या कर्म का खेल है , सुख - दुःख की द्वन्द्वात्मक गति है या वह उद्विग्न या उद्वेगजनक आनंद है जो सच्चा आध्यात्मिक आनंद नहीं , बल्कि एक प्रकार की मानसिक तृप्ति है जिसके साथ अनिवार्य रूप से मानसिक अतृप्ति का प्रतिक्षेप या प्रतिरूप भी लगा रहता है। जीव में जहां कहीं विषमता है वहां ज्ञान से स्खलन है , सर्वसमाहारक और सर्वसमन्वयकारक ब्रह्मोक्य में और सचराचर जगत् के एकत्व में सुप्रतिष्ठ रहने का अभाव है। इस समत्व के द्वारा ही कर्मयोगी को कर्म करते समय भी यह ज्ञान रहता है कि वह मुक्त है।गीता ने जिस समत्व का विधान किया है उसका स्वरूप है आध्यात्मिक, वह अपने स्वभाव और व्यापकता में उच्च और विश्वव्यापी है ओर यही इस विषय में गीता के उपदेश की विशेषता है। नही तो समत्व का उपदेश मात्र देकर यह कहना कि ‘ यह मन , अनुभव और स्वभाव की एक अत्यंत वांछनीय अवस्था है जिसमें पहुंचकर हम मानव - दुर्बलता के ऊपर उठ जाते हैं ,’ गीता की अनूठी विशेषता नहीं है। ऐसा समत्व तो दार्शनिक आदर्श और साधु - महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है। गीता इस दार्शनिक आदर्श और साधु - महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है। गीता इस दार्शनिक आदर्श को स्वीकार अवश्य करती है पर उसे बहुत दूर ऐसे उच्च प्रदेशों में ले जाती है जहां हम अपने - आपको अधिक विशाल और विशुद्ध वातावरण में सांस लेते हुए पाते हैं।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०७:२७, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
19.समत्व

निष्कामता है जगत् के पृथक् - पृथक् काम्य विषयों के बंधनकारक आकर्षण से अनंत आत्मा की श्रेष्ठता । और इसे जब उन विषयों के साथ संबंध स्थापित करना हो तो वह निष्कामता इन विषयों के पाने पर सम निष्पक्ष उदासीनता के रूप में अथवा सबके लिये वैसे ही सम निष्पक्ष अनासक्त आनंद और प्रेमी के रूप में प्रकट होगी , क्योंकि ये आनंद और प्रेम स्वतःसिद्ध होने के कारण विषयों के होने पर निर्भर नहीं हैं बल्कि अपने स्वभाव में अविचल और अक्षर हैं। आत्मानंद ही रहता है , और यदि इस आनंद को जगत् के पदार्थो और प्राणियों से नाता जोड़ना हो तो वह इसी प्रकार अपनी मुक्त आत्मास्थिति को प्रकट कर सकता है। त्रैगुणातीत्य है चिर चंचल विषमस्वरूप प्रकृति के गुणकर्मो के प्रवाह से अविचल आत्मा की श्रेष्ठता , और यदि इसे प्रकृति परस्पर- विरोधिनी और विषम क्रियाओं के साथ संबंध जोड़ना हो , यदि मुक्त आत्मा को अपने स्वभाव को कुछ भी कर्म करने देना हो तो उसे इस श्रेष्ठता को समस्त कर्मो , कर्म - फलों या घटनाओं के प्रति अपने निष्पक्ष समत्व के भाव के द्वारा ही प्रकट करना होगा।समत्व ही मुमुक्षु का लक्षण और कसौटी है। जहां कहीं जीव में विषमता है।
वहां प्रकृति के गुणों की विषम क्रीड़ा प्रत्यक्ष है, वहां कामना का वेग है , व्यक्तिगत इच्छा , भाव या कर्म का खेल है , सुख - दुःख की द्वन्द्वात्मक गति है या वह उद्विग्न या उद्वेगजनक आनंद है जो सच्चा आध्यात्मिक आनंद नहीं , बल्कि एक प्रकार की मानसिक तृप्ति है जिसके साथ अनिवार्य रूप से मानसिक अतृप्ति का प्रतिक्षेप या प्रतिरूप भी लगा रहता है। जीव में जहां कहीं विषमता है वहां ज्ञान से स्खलन है , सर्वसमाहारक और सर्वसमन्वयकारक ब्रह्मोक्य में और सचराचर जगत् के एकत्व में सुप्रतिष्ठ रहने का अभाव है। इस समत्व के द्वारा ही कर्मयोगी को कर्म करते समय भी यह ज्ञान रहता है कि वह मुक्त है।गीता ने जिस समत्व का विधान किया है उसका स्वरूप है आध्यात्मिक, वह अपने स्वभाव और व्यापकता में उच्च और विश्वव्यापी है ओर यही इस विषय में गीता के उपदेश की विशेषता है। नही तो समत्व का उपदेश मात्र देकर यह कहना कि ‘ यह मन , अनुभव और स्वभाव की एक अत्यंत वांछनीय अवस्था है जिसमें पहुंचकर हम मानव - दुर्बलता के ऊपर उठ जाते हैं ,’ गीता की अनूठी विशेषता नहीं है। ऐसा समत्व तो दार्शनिक आदर्श और साधु - महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है। गीता इस दार्शनिक आदर्श और साधु - महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है। गीता इस दार्शनिक आदर्श को स्वीकार अवश्य करती है पर उसे बहुत दूर ऐसे उच्च प्रदेशों में ले जाती है जहां हम अपने - आपको अधिक विशाल और विशुद्ध वातावरण में सांस लेते हुए पाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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