"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 32": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध</div> <div style="text-align:center; di...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-" to "गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. ")
पंक्ति ४: पंक्ति ४:
कर्तव्य आपेक्षिक शब्द है और दूसरों के साथ अपने संबंध पर इसका निर्भर है। पिता होने के नाते पिता का यह कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों का लालन पालन करे और उन्हें सुनिश्चित करे; वकील का यह कर्तव्य है कि वह अपने मुवक्किल की पैरवी करने में पूरी कोशिश करे चाहे उसे यह ज्ञात भी हो कि मुवक्किल कसूरवार है और उसने जो जवाब दिया है वह झूठ है; सिपाही का कर्तव्य है कि वह लड़े , हुकूमत पाते ही गोली मार दे चाहे उसका सामना करने वाला उसका नाती-गोती या देश-भाई ही क्यों न हो; जज का यह कर्तव्य है कि वह अपराधी को जेल भेजे और खूनी को सूली पर चढ़वा दे। जब तक मनुष्य इन पदों पर रहना स्वीकार करता है तब तक उसका कर्तव्य स्पष्ट है, और जब इस कर्तव्य में उसकी मर्यादा और समता का सवाल न उठता हो तब भी उसके लिये अपने कर्तव्य का पालन करना एक व्यवहारिक बात हो जाती है और उसको कर्तव्य का पालन करते हुए निरपेक्ष धार्मिक और नैतिक विधान का उल्लंघन करना पड़ता है। परंतु यदि दृष्टि ही बदल जाये, यदि वकील की आंख खुल जाये और वह देखने लगे कि झूठ सदा पाप ही है, यदि जज को यह विश्वास हो जाये कि किसी मनुष्य को फांसी की सजा देना मानवता की दृष्टि पाप करना है, समर भूमि में सिपाही का ही चित्त यदि आधुनिक युद्ध-विरोधियों का-सा हो जाये या टालस्टाय के समान उसके चित्त में यह आ जाये कि किसी भी मनुष्य की जान किसी भी हालत में लेना वैसा ही घृणित काम है जैसा कि मनुष्य का मांस भक्षण करना, तब क्या होगा? ऐसे प्रसंग में अपने अंतःकरण का धर्म ही, जो सब आपेक्षिक धर्मों से ऊपर है, माना जायेगा, यह बात बिल्कुल साफ है; और यह धर्म कर्तव्य-विषयक सामाजिक संबंध या भावना पर निर्भर नहीं, बल्कि मनुष्य की, नैतिक मनुष्य की जागी हुई अंतःप्रतीत पर निर्भर है। संसार में वस्तुतः दो प्रकार के आचार-धर्म हैं, दोनों ही अपने- अपने स्थान पर आवश्यक और समुचित हैं, एक वह आचार-धर्म है जो मुख्यतः बाह्य अवस्था पर निर्भर है दूसरा वह है जो बाह्य पद-मर्यादा से सर्वथा स्वतंत्र और अपने ही सदद्विवेदक और विचार  पर निर्भर करता है। गीता की शिक्षा यह नहीं कि श्रेष्ठ भूमिका के आचार-धर्म के अधीन कर दो, गीता यह नहीं कहती कि अपनी जागृति नैतिक चेतना को मारकर उसे सामाजिक मर्यादा पर निर्भर धर्म की वेदी पर बलि चढ़ा दो। गीता हमें ऊपर उठने के लिये कहती है,  नीचे गिरने के लिये नही; दो क्षेत्रों के संघर्ष से, गीता हमें ऊपर चढ़ने का, उस परा स्थिति को प्राप्त करने का आदेश देती है जो केवल व्यावहारिक एवं केवल नैतिक चैतन्य से ऊपर है, जो ब्राह्मी स्थिति है। समाज-धर्म के स्थान में गीता यहां भगवान् के प्रति अपने कर्तव्य की भावना को प्रतिष्ठित करती है।  
कर्तव्य आपेक्षिक शब्द है और दूसरों के साथ अपने संबंध पर इसका निर्भर है। पिता होने के नाते पिता का यह कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों का लालन पालन करे और उन्हें सुनिश्चित करे; वकील का यह कर्तव्य है कि वह अपने मुवक्किल की पैरवी करने में पूरी कोशिश करे चाहे उसे यह ज्ञात भी हो कि मुवक्किल कसूरवार है और उसने जो जवाब दिया है वह झूठ है; सिपाही का कर्तव्य है कि वह लड़े , हुकूमत पाते ही गोली मार दे चाहे उसका सामना करने वाला उसका नाती-गोती या देश-भाई ही क्यों न हो; जज का यह कर्तव्य है कि वह अपराधी को जेल भेजे और खूनी को सूली पर चढ़वा दे। जब तक मनुष्य इन पदों पर रहना स्वीकार करता है तब तक उसका कर्तव्य स्पष्ट है, और जब इस कर्तव्य में उसकी मर्यादा और समता का सवाल न उठता हो तब भी उसके लिये अपने कर्तव्य का पालन करना एक व्यवहारिक बात हो जाती है और उसको कर्तव्य का पालन करते हुए निरपेक्ष धार्मिक और नैतिक विधान का उल्लंघन करना पड़ता है। परंतु यदि दृष्टि ही बदल जाये, यदि वकील की आंख खुल जाये और वह देखने लगे कि झूठ सदा पाप ही है, यदि जज को यह विश्वास हो जाये कि किसी मनुष्य को फांसी की सजा देना मानवता की दृष्टि पाप करना है, समर भूमि में सिपाही का ही चित्त यदि आधुनिक युद्ध-विरोधियों का-सा हो जाये या टालस्टाय के समान उसके चित्त में यह आ जाये कि किसी भी मनुष्य की जान किसी भी हालत में लेना वैसा ही घृणित काम है जैसा कि मनुष्य का मांस भक्षण करना, तब क्या होगा? ऐसे प्रसंग में अपने अंतःकरण का धर्म ही, जो सब आपेक्षिक धर्मों से ऊपर है, माना जायेगा, यह बात बिल्कुल साफ है; और यह धर्म कर्तव्य-विषयक सामाजिक संबंध या भावना पर निर्भर नहीं, बल्कि मनुष्य की, नैतिक मनुष्य की जागी हुई अंतःप्रतीत पर निर्भर है। संसार में वस्तुतः दो प्रकार के आचार-धर्म हैं, दोनों ही अपने- अपने स्थान पर आवश्यक और समुचित हैं, एक वह आचार-धर्म है जो मुख्यतः बाह्य अवस्था पर निर्भर है दूसरा वह है जो बाह्य पद-मर्यादा से सर्वथा स्वतंत्र और अपने ही सदद्विवेदक और विचार  पर निर्भर करता है। गीता की शिक्षा यह नहीं कि श्रेष्ठ भूमिका के आचार-धर्म के अधीन कर दो, गीता यह नहीं कहती कि अपनी जागृति नैतिक चेतना को मारकर उसे सामाजिक मर्यादा पर निर्भर धर्म की वेदी पर बलि चढ़ा दो। गीता हमें ऊपर उठने के लिये कहती है,  नीचे गिरने के लिये नही; दो क्षेत्रों के संघर्ष से, गीता हमें ऊपर चढ़ने का, उस परा स्थिति को प्राप्त करने का आदेश देती है जो केवल व्यावहारिक एवं केवल नैतिक चैतन्य से ऊपर है, जो ब्राह्मी स्थिति है। समाज-धर्म के स्थान में गीता यहां भगवान् के प्रति अपने कर्तव्य की भावना को प्रतिष्ठित करती है।  


{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-31|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-33}}
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 31|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 33}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>

०७:५३, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
4.-उपदेश का कर्म

कर्तव्य आपेक्षिक शब्द है और दूसरों के साथ अपने संबंध पर इसका निर्भर है। पिता होने के नाते पिता का यह कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों का लालन पालन करे और उन्हें सुनिश्चित करे; वकील का यह कर्तव्य है कि वह अपने मुवक्किल की पैरवी करने में पूरी कोशिश करे चाहे उसे यह ज्ञात भी हो कि मुवक्किल कसूरवार है और उसने जो जवाब दिया है वह झूठ है; सिपाही का कर्तव्य है कि वह लड़े , हुकूमत पाते ही गोली मार दे चाहे उसका सामना करने वाला उसका नाती-गोती या देश-भाई ही क्यों न हो; जज का यह कर्तव्य है कि वह अपराधी को जेल भेजे और खूनी को सूली पर चढ़वा दे। जब तक मनुष्य इन पदों पर रहना स्वीकार करता है तब तक उसका कर्तव्य स्पष्ट है, और जब इस कर्तव्य में उसकी मर्यादा और समता का सवाल न उठता हो तब भी उसके लिये अपने कर्तव्य का पालन करना एक व्यवहारिक बात हो जाती है और उसको कर्तव्य का पालन करते हुए निरपेक्ष धार्मिक और नैतिक विधान का उल्लंघन करना पड़ता है। परंतु यदि दृष्टि ही बदल जाये, यदि वकील की आंख खुल जाये और वह देखने लगे कि झूठ सदा पाप ही है, यदि जज को यह विश्वास हो जाये कि किसी मनुष्य को फांसी की सजा देना मानवता की दृष्टि पाप करना है, समर भूमि में सिपाही का ही चित्त यदि आधुनिक युद्ध-विरोधियों का-सा हो जाये या टालस्टाय के समान उसके चित्त में यह आ जाये कि किसी भी मनुष्य की जान किसी भी हालत में लेना वैसा ही घृणित काम है जैसा कि मनुष्य का मांस भक्षण करना, तब क्या होगा? ऐसे प्रसंग में अपने अंतःकरण का धर्म ही, जो सब आपेक्षिक धर्मों से ऊपर है, माना जायेगा, यह बात बिल्कुल साफ है; और यह धर्म कर्तव्य-विषयक सामाजिक संबंध या भावना पर निर्भर नहीं, बल्कि मनुष्य की, नैतिक मनुष्य की जागी हुई अंतःप्रतीत पर निर्भर है। संसार में वस्तुतः दो प्रकार के आचार-धर्म हैं, दोनों ही अपने- अपने स्थान पर आवश्यक और समुचित हैं, एक वह आचार-धर्म है जो मुख्यतः बाह्य अवस्था पर निर्भर है दूसरा वह है जो बाह्य पद-मर्यादा से सर्वथा स्वतंत्र और अपने ही सदद्विवेदक और विचार पर निर्भर करता है। गीता की शिक्षा यह नहीं कि श्रेष्ठ भूमिका के आचार-धर्म के अधीन कर दो, गीता यह नहीं कहती कि अपनी जागृति नैतिक चेतना को मारकर उसे सामाजिक मर्यादा पर निर्भर धर्म की वेदी पर बलि चढ़ा दो। गीता हमें ऊपर उठने के लिये कहती है, नीचे गिरने के लिये नही; दो क्षेत्रों के संघर्ष से, गीता हमें ऊपर चढ़ने का, उस परा स्थिति को प्राप्त करने का आदेश देती है जो केवल व्यावहारिक एवं केवल नैतिक चैतन्य से ऊपर है, जो ब्राह्मी स्थिति है। समाज-धर्म के स्थान में गीता यहां भगवान् के प्रति अपने कर्तव्य की भावना को प्रतिष्ठित करती है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध