"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 4": अवतरणों में अंतर
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यज्ञ की यह विधि और भावना स्वयं भारतवर्ष में ही बहुत काल से लृप्तप्राय हो गयी है और सर्वसाधारण मानव-मन को इसमें कुछ भी तथ्य नहीं प्रतीत होता। परंतु गीता में यह “यज्ञ“ शब्द अलंकारिक, सांकेतिक और सूक्ष्म तत्व का परिचायक है तथा देवता-विषयक भावना देशकालमर्यादा और किंवदंती से इतनी मुक्त और इतने पूर्ण रूप से सार्वभौम और दार्शनिक है कि हम यज्ञ और देवता दोनों को मनोविज्ञान और प्रकृति के साधारण विधान के व्यावहारिक तथ्य के रूप में सहज ही ग्रहण कर सकते हैं और इन्हें, प्राणियों में परस्पर होने वाले आदान-प्रदान, एक-दूसरे के हितार्थ होने वाले बलिदान और आत्मदान के विषय में जो आधुनिक विचार हैं, उन पर, इस तरह घटा सकते हैं कि इनके अर्थ और भी उदार और गंभीर हो जायें, ये अधिक सच्चे आध्यात्मिक और गंभीरतर अत्यधिक विस्तीर्ण सत्य के प्रकाश से प्रकाशित हो जायें। इसी प्रकार शास़्त्र-विधान के अनुसार कर्म, चातुर्वण्र्य, विभिन्न वर्णों की स्थिति में तारतम्य, या अध्यात्म-विषय में शुद्रों और स्त्रियों के अनधिकार, ये सब बातें पहली नजर में तो देश-विशेष या काल-विशेष से ही संबंध रखने वाली प्रतीत होती हैं और इनका एक मात्र शाब्दिक अर्थ ही लिया जाये तो गीता की शिक्षा उतने अंश में अनुदार ही हो जाती है और उससे गीता के उपदेश की व्यापकता और आध्यात्मिकता नष्ट हो जाती है फिर समस्त मनुष्य जाति के लिये उसका उतना उपयोग नहीं रह जाता। परंतु यदि इसके आंतरिक भाव और अर्थ को देखें , केवल देश-विशिष्ट नाम और काल-विशिष्ट रूप को नही, तो यह दिखायी देगा कि यहां भी अर्थ गूढ़, गंभीर और तथ्यपूर्ण और इसका भाव दार्शनिक, आध्यात्मिक और सार्वजनिक है। | यज्ञ की यह विधि और भावना स्वयं भारतवर्ष में ही बहुत काल से लृप्तप्राय हो गयी है और सर्वसाधारण मानव-मन को इसमें कुछ भी तथ्य नहीं प्रतीत होता। परंतु गीता में यह “यज्ञ“ शब्द अलंकारिक, सांकेतिक और सूक्ष्म तत्व का परिचायक है तथा देवता-विषयक भावना देशकालमर्यादा और किंवदंती से इतनी मुक्त और इतने पूर्ण रूप से सार्वभौम और दार्शनिक है कि हम यज्ञ और देवता दोनों को मनोविज्ञान और प्रकृति के साधारण विधान के व्यावहारिक तथ्य के रूप में सहज ही ग्रहण कर सकते हैं और इन्हें, प्राणियों में परस्पर होने वाले आदान-प्रदान, एक-दूसरे के हितार्थ होने वाले बलिदान और आत्मदान के विषय में जो आधुनिक विचार हैं, उन पर, इस तरह घटा सकते हैं कि इनके अर्थ और भी उदार और गंभीर हो जायें, ये अधिक सच्चे आध्यात्मिक और गंभीरतर अत्यधिक विस्तीर्ण सत्य के प्रकाश से प्रकाशित हो जायें। इसी प्रकार शास़्त्र-विधान के अनुसार कर्म, चातुर्वण्र्य, विभिन्न वर्णों की स्थिति में तारतम्य, या अध्यात्म-विषय में शुद्रों और स्त्रियों के अनधिकार, ये सब बातें पहली नजर में तो देश-विशेष या काल-विशेष से ही संबंध रखने वाली प्रतीत होती हैं और इनका एक मात्र शाब्दिक अर्थ ही लिया जाये तो गीता की शिक्षा उतने अंश में अनुदार ही हो जाती है और उससे गीता के उपदेश की व्यापकता और आध्यात्मिकता नष्ट हो जाती है फिर समस्त मनुष्य जाति के लिये उसका उतना उपयोग नहीं रह जाता। परंतु यदि इसके आंतरिक भाव और अर्थ को देखें , केवल देश-विशिष्ट नाम और काल-विशिष्ट रूप को नही, तो यह दिखायी देगा कि यहां भी अर्थ गूढ़, गंभीर और तथ्यपूर्ण और इसका भाव दार्शनिक, आध्यात्मिक और सार्वजनिक है। | ||
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०७:५७, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
केवल ऐसे हो सद्ग्रंथ, धर्मशास्त्र और दर्शन मनुष्य-जाति के काम के बने रहते हैं जो इस प्रकार नित नये होते रहे हों, पुनः-पुनः जीवन में चरित्रार्थ किये जाते हों, जिनका आधारभूत शाश्वत तत्व निरन्तर नया रूप लेता और विकसनशील मनुष्य-जाति की अंतर्विचारधारा और आध्यात्मिक अनूभूत से विकसित होता हो। इसके जो कुछ है वह भूतकाल का भव्य स्मारक तो है, पर उसमें भविष्य के लिये कोई यथार्थ शक्ति या सजीव प्रेरणा नहीं हैं। गीता में ऐसा विषय बहुत ही कम है जो केवल एकदेशीय और सामयिक हो और जो भी उसका आशय उतना उदार, गंभीर और व्यापक है कि उसे बिना किसी विशेष आयास के, और इसकी शिक्षा का जरा भी ह्रास या अतिक्रम किये बिना व्यापक रूप दिया जा सकता है; इतना ही नहीं बल्कि ऐसा व्यापक रूप देने से उसकी गहराई, उसके सत्य और शक्ति में वृद्धि होती है। स्वयं गीता में ही बारंबार उस व्यापक रूप का संकेत दिया गया है जो इस प्रकार देशकालमर्यादित भावना या संस्कार-विशेष का दिया जा सकता है। उदाहरण के लिये “यज्ञ“ संबंधी प्राचीन भारतीय विधि और भावना को गीता ने देवताओं और मनुष्यों का पारस्पकि आदान-प्रदान कहा है।
यज्ञ की यह विधि और भावना स्वयं भारतवर्ष में ही बहुत काल से लृप्तप्राय हो गयी है और सर्वसाधारण मानव-मन को इसमें कुछ भी तथ्य नहीं प्रतीत होता। परंतु गीता में यह “यज्ञ“ शब्द अलंकारिक, सांकेतिक और सूक्ष्म तत्व का परिचायक है तथा देवता-विषयक भावना देशकालमर्यादा और किंवदंती से इतनी मुक्त और इतने पूर्ण रूप से सार्वभौम और दार्शनिक है कि हम यज्ञ और देवता दोनों को मनोविज्ञान और प्रकृति के साधारण विधान के व्यावहारिक तथ्य के रूप में सहज ही ग्रहण कर सकते हैं और इन्हें, प्राणियों में परस्पर होने वाले आदान-प्रदान, एक-दूसरे के हितार्थ होने वाले बलिदान और आत्मदान के विषय में जो आधुनिक विचार हैं, उन पर, इस तरह घटा सकते हैं कि इनके अर्थ और भी उदार और गंभीर हो जायें, ये अधिक सच्चे आध्यात्मिक और गंभीरतर अत्यधिक विस्तीर्ण सत्य के प्रकाश से प्रकाशित हो जायें। इसी प्रकार शास़्त्र-विधान के अनुसार कर्म, चातुर्वण्र्य, विभिन्न वर्णों की स्थिति में तारतम्य, या अध्यात्म-विषय में शुद्रों और स्त्रियों के अनधिकार, ये सब बातें पहली नजर में तो देश-विशेष या काल-विशेष से ही संबंध रखने वाली प्रतीत होती हैं और इनका एक मात्र शाब्दिक अर्थ ही लिया जाये तो गीता की शिक्षा उतने अंश में अनुदार ही हो जाती है और उससे गीता के उपदेश की व्यापकता और आध्यात्मिकता नष्ट हो जाती है फिर समस्त मनुष्य जाति के लिये उसका उतना उपयोग नहीं रह जाता। परंतु यदि इसके आंतरिक भाव और अर्थ को देखें , केवल देश-विशिष्ट नाम और काल-विशिष्ट रूप को नही, तो यह दिखायी देगा कि यहां भी अर्थ गूढ़, गंभीर और तथ्यपूर्ण और इसका भाव दार्शनिक, आध्यात्मिक और सार्वजनिक है।
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