"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 138": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
14.दिव्य कर्म का सिद्धांत

इन दोनों की परिपूर्णता को, इनके समन्वय को पुरूषोत्तम - भाव में खोजना होगा जो यहां श्रीकृष्ण रूप से उपस्थित हैं। देवनर उन्हींकी दिव्य प्रकृति में प्रवेश करके उसी तरह कर्म करेगा जैसे वे करते हैं; वह अकर्म की शरण नहीं लेगा। अज्ञानी और और ज्ञानी दोनों ही मनुष्यों में भगवान् कार्य कर रहे हैं। उन भगवान् का ज्ञान हो, यही जीव का परम कल्याण और उसकी सिद्धि की शर्त है, किंतु उन्हें विश्वतीत शांति और निश्चल - नीरवता के रूप में जानना और उपलब्ध करना ही सब कुछ नहीं है। जिस रहस्य को जानना है वह तो अज अव्यय परमात्मा और उनके दिव्य जन्म - कर्म का रहस्य है, इस ज्ञान से जो कर्म निःसृत होता है वह सब बंधनों से मुक्त होता है , “इस प्रकार जो मुझे जातना है” , भगवान् कहते हैं कि, “वह कर्मो से नहीं बंधता।“ यदि कर्म और वासना के बंधन से और पुर्जन्म के चक्र से छूटना उद्देश्य और आदर्श हो तो ऐसे ज्ञान को ही सच्चा ज्ञान, मुक्ति का प्रशस्त पथ जानना होगा; कारण गीता का कथन है कि, है “हे अर्जुन, जो तत्वतः मेरे दिव्य जन्म - कर्म को जानता है , वह इस शरीर को छोड़ने पर, पुनर्जन्म को नहीं बल्कि, मुझे प्राप्त होता है।“ दिव्य जन्म को जानकर और अधिकृत करके वह अज अव्यय भगवान् को, जो सकलांतरात्मा हैं, प्राप्त होता है ; और दिव्य कर्मो के ज्ञान और आरचरण से कर्मो के अधीश्वर को , सब प्राणियों के ईश्वर, को प्राप्त होता है। तब वह अज अविनाशी सत्ता में ही रहता है; उसके कर्म उस सर्व- लोकमहेश्वर के कर्म होते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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