"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 150": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
15.अवतार की संभावना और हेतु

यह आत्मा का स्वतः स्थित पुरूष रूप से जन्म के अंदर आना है, अपने भूतभाव को सचेतन रूप से नियंत्रित करना है, अज्ञान के बादल में अपने - आपको खो देना नहीं ; यह पुरूष का प्रकृति के प्रभु - रूप से शरीर में जन्म लेना है यहां प्रभु अपनी प्रकृति के ऊपर खड़े स्वेच्छा से स्वच्छंदतापूर्वक उसके अंदर कार्य करते हैं, उसके आधीन होकर, बेबस, भवचक्ररूपी यंत्र में फंसे - भटकते नहीं रहते, क्योंकि उनका कर्म ज्ञानकृत होता है, सामान्य प्राणियों का सा अज्ञानकृत नहीं । यह सब प्राणियो के अंदर छिपे हुए अंतर्यामी अंतरात्मा का ही परदे की आड़ से बाहर निकल आना और मानव रूप में पर भगवान् की भांति, उस जन्म को अधिकृत करना है, और जिसे वह सामान्यतः परदे की आड़ में ईश्वर रूप से अधिकृत किये रहता है, जब कि परदे के बाहर की जो बहिर्गत चेतना है वह अधिकारी होने की अपेक्षा स्वयं ही अधिकृत रहती है, क्योंकि वहां वह आंशिक सचेतन सत्ता - रूप से आत्मविस्मृत जीव है और प्रकृति के अधीन जो यह जगव्यापार है उसके द्वारा अपने कर्म में बंधा है। इसलिये अवतार का अर्थ है१ भागवत पुरूष श्रीकृष्ण का पुरूष के दिव्य भाव को मानवता के अंदर प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करना ।
भगवान् गुरू अर्जुन को जो मानव - आत्मा है, मानव - प्राणी का श्रेष्ठतम नमूना है, विभूति है, उसी दिव्य भाव में ऊपर उठने के लिये निमंत्रित करते हैं जिसमे वह तभी पहुंच सकता हैं जब अपनी सामान्य मानवता के अज्ञान और सीमा को पार कर ले। यह ऊपर से उसी तत्व का नीचे आकर अविर्भूत होना है जिसे हमें नीचे से ऊपर चढ़ा ले जाना है; यह मानव - सत्ता के उस दिव्य जन्म में भगवान् का अवतरण है जिसमे हम मत्र्य प्राणियों को आरोहण करना है; यह मानव - प्राणी के सम्मुख, मनुष्य के ही आकार और प्रकार के अंदर तथा मानव जीवन के सिद्ध आदर्श नमूने के अंदर , भगवान् का एक आकर्षक दिव्य उदाहरण है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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