"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 163": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म

इस वर्णन में अवतार के आने का आध्यात्मिक हेतु छूट जाता है ; और यदि इस बाह्म प्रयोजन को ही हम सब कुछ मान लें तो बुद्ध और ईसा को हमें अवतारों की कक्षा से अलग कर देना होगा , क्योंकि इनका काम तो दुष्टो को नष्ट करने और शिष्टों को बचाने का नहीं , बल्कि अखिल मानव - समाज को एक नया आध्यात्मिक संदेश सुनाना तथा दिव्य विकास और आध्यात्मिक सिद्धि का एक नया विधान देना था। धर्म शब्द को यदि हम केवल धार्मिक अर्थ में ही ग्रहण करें अर्थात् इसे धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन का एक विधान मानें तो हम इस विषय के मूल में तो जरूर पहूंचेगे , किंतु इसमें भय है कि हम अवतार के एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य को कहीं दृष्टि की औट न कर दे। भगवद्वतारों के इतिहास में सर्वत्र ही यह स्पष्ट दिखायी देता है कि उनका कार्य द्विविध होता है और यह अपरिहार्य है , द्विविध होने का कारण यह है कि अवतीर्ण भगवान् मानव - जीवन में होने वाले भगवत - कार्य को ही अपने हाथ में उठा लेते हैं , जगत् में जो भगवत - इच्छा और भगवत - ज्ञान काम कर रहे हैं, उन्हीं का अनुसरण कर अपना कार्य करते हैं और यह कार्य सदा आंतर और बाह्म दोनों प्रकार से सिद्ध होता है - आत्मा में आंतरिक उन्नति के द्वारा और जागतिक जीवन में बाह्म परिवर्तन द्वारा हो सकता है कि भगवान् का अवतार, किसी महान् आध्यात्मिक गुरू या त्रात्रा के रूप में हो, जैसे बुद्ध और ईसा , किंतु सदा ही उनकी पार्थिव अभिव्यक्ति की समाप्ति के बाद भी उनके कर्म के फलस्वरूप जाति के केवल नैतिक जीवन में ही नहीं बल्कि उसके सामाजिक और बाह्म जीवन और आदर्शो में भी एक गंभीर और शक्तिशाली परिवर्तन हो जाता है। दूसरी ओर , हो सकता है कि वे दिव्य जीवन , दिव्य व्यक्तित्व और दिव्य शक्ति के अवतार होकर आवें , अपने दिव्य कर्म को करने के लिये , जिसका उद्देश्य बाहर से सामाजिक , नैतिक और राजनीतिक ही दिखयी देता हो ; जेसा कि राम और कृष्ण की कथाओं में बताया गया है , फिर भी सदा ही यह अवतरण जाति की आत्मा में उसके आंतरिक जीवन के लिये और उसके आध्यात्मिक नव जन्म के लिये एक ऐसी स्थायी शक्ति का काम करता है। यह एक अनोखी बात है कि बौद्ध और इसाई धर्मो का स्थायी , जीवंत तथा विश्वव्यापक फल यह हुआ कि जिन मनुष्यों तथा कालों ने इनके धार्मिक और आध्यात्मिक मतों , रूपों और साधनाओं का परित्यगा कर दिया , उन पर भी इन धर्मो के नैतिक, सामाजिक और वयावहारिक आदर्शो का शक्तिशाली प्रभाव पड़ा। पीछे के हिन्दुओं ने बुद्ध, उनके संघ और धर्म को अमान्य कर दिया, पर बुद्धधर्म के सामाजिक और नैतिक प्रभाव की अमिट छाप उन पर पडी हुई है और हिंदूजाति का जीवन और आचार - विचार उससे प्रभावित है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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