"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 212": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
21.प्रकृति का नियतिवाद

बहराहाल, हमारी इस तथाकथित स्वाधीन इच्छा का नव - दशमांश स्पष्ट ही मिथ्या कल्पना है; यह इच्छा किसी नियत काल में अपनी निजी स्वतःसिद्ध क्रिया के द्वारा उत्पन्न और निद्र्धारित नहीं होती, बल्कि इसकी उत्पत्ति और इसका निद्र्धारण हमारे भूतकाल के द्वारा, वंशानुक्रम , शिक्षा - दीक्षा और परिस्थिति के द्वारा तथा हमारे पीछे जो दारूण जटिल चीज लगी है, जिसे हम कर्म कहते हैं, उसके द्वारा होता है। यह कर्म क्या है? यह हमपर और जगत पर अतीत काल में प्रकृति की जो क्रिया हो चुकी है उसका समूह है जो हर व्यक्ति के अंदर केंद्रीभूत होता रहता है, और वह व्यक्ति जो कुछ है तथा किसी विशिष्ट काल में उस व्यक्ति की जो इच्छा होगी और , जहां तक विश्लेषण द्वारा देखा जा सकता है वहां तक , उस विशिष्ट काल मे उसकी क्रिया तक जो होगी , इसका निद्र्धारण भी यही कर्म करता है। प्रकृति की इस क्रिया के साथ अहंकार शामिल हो जाता और कहता है कि ‘ मैंने किया’, ‘मैं इच्छा कर रहा हूं’, ‘ में दुःख भोग रहा हूं’, किंतु यदि वह अपने - आपको देखे और यह जाने कि वह कैसे बना है तो उसे , मनुष्य - शरीर में भी पशु - शरीर की तरह , यही कहना पडे़गा कि प्रकृति ने मेरे अंदर यह काम किया , प्रकृति मेरे अंदर यह इच्छा कर रही है। और यदि इस प्रकृति को वह ‘ अपनी प्रकृति’ कहे तो इसका अर्थ है वह प्रकृति जो उस व्यष्टिप्राणी में यह रूप धारण किये हुए है। जीवन के इस पहलू का बड़ा तीव्र अनुभव होने से ही बौद्धों को यह कहना पडा़ कि सब कुछ कर्म ही है और जीवन में कोई आत्मसत्ता नहीं है, आत्मा की भावना तो अहंबुद्धि का केवल एक भ्रम है। अहंकार जब यह सोचता है कि ‘‘ मैं इस पुण्य कर्म को चुनता और इसका संकल्प करता हूं , उस पाप कर्म का नहीं” तब वह उसके सिवाय और कुछ नहीं करता कि सत्वगुण की किसी प्रधान लहर या सुसंगठित धारा के साथ, जिसके द्वारा प्रकृति बुद्धि को अपना उपकरण बनाकर किसी एक प्रकार के कर्म से किसी दूसरे प्रकार के कर्म को चुनना अधिक पसंद करती है, अपने - आपको शामिल कर लेता है, जैसे कि किसी घूमते हुए पहिये पर बैठी हुई वह मक्खी जो वह समझती है कि मैं ही घूम रही हूं या किसी कल - पुरजे का एक दांत या एक हिस्सा जो यदि उसे होश होता तो यही समझता कि मैं ही तो घूम रहा हूं। सांख्य सिद्धांत के अनुसार प्रकृति हमारे अंदर अकर्ता साक्षी पुरूष की प्रशन्नता के लिये स्वयं गठित होती और इच्छा करती है।परंतु इस अत्याचार वर्णन में यदि कोई हेरफेर करना आवश्यक हो, और हम आगे चलकर देखेंगे कि इसका किस अर्थ में हेरफेर करना है, तो भी हमारी इच्छा की स्वाधीनता (यदि हम उसे स्वाधीनता कहना ही पसंद करें) बहुत सापेक्ष और अल्प है, क्योंकि इसके साथ बहुत से नियामक तत्व मिले हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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