"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 40": अवतरणों में अंतर
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०८:४८, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
इसके विपरीत, यदि वह ऐसा शत्रु हो जिसे मारना, कुचल डालना, जड़ से उखाढ़ फेंकना या नष्ट करना जरूरी हो तो जीवन पर उसका जो प्रभाव या दखल है उसे एक मामूली-सी बात समझने अथवा इस बात को देखने से इंकार करने से कि प्रभावकारी भूतकाल में तथा जीवन के यथार्थतः कार्यकारी सिद्धांतों में इसकी जड़ें कितनी मजबूती के साथ जमीं हुई हैं, हमें कुछ भी लाभ नहीं है। युद्ध और संहार का विश्वव्यापी सिद्धांत हमारे इस ऐहिक जीवन के निरे स्थूल पहलू से ही नहीं, बल्कि हमारे मानसिक और नैतिक जीवन से भी संबंध रखता है। यह तो स्वतः सिद्ध है कि मनुष्य का जो वास्तविक जीवन है, चाहे वह बौद्धिक हो या सामाजिक, राजनीतिक हो या नैतिक, उसमें बिना संघर्ष के-अर्थात् जो कुछ है और जो कुछ होना चाहता है इन दोनों के बीच तथा इन दोनों के पीछे के तत्वों में जब तक परस्पर-युद्ध न हो तब तक- हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। जब तक मनुष्य और संसार वर्तमान अवस्था में हैं, कम-से-कम तब तक के लिये तो आगे बढ़ना, उन्नत होना और पूर्णावस्था को प्राप्त करना और साथ ही हमारे सामने जिस अहिंसा के सिद्धांत को मनुष्य का उच्चतम और सर्वोत्तम धर्म कहकर उपस्थित किया जाता है, उसका यथार्थतः और संपूर्णतः पालन करना असंभव है।
केवल आत्मबल का प्रयोग करेंगे, युद्ध करके या भौतिक बल प्रयोग से अपनी रक्षा का उपाय करके हम किसी का नाश नहीं करेंगें? अच्छी बात है, और जब तक आत्म बल अमोघ न उठे तब तक मनुष्यों और राष्ट्रों में जो असुरी बल है वह चाहें हमें रौंदता रहे, हमारे टुकड़े-टुकड़े करता रहे, हमें जबह करता रहे, हमें जलाता रहे, भ्रष्ट करता रहे, जैसा करते हुए आज हम उसे देख रहे हैं, तब तो वह इस काम को और भी मौज से और बिना किसी बाधा-विघ्न के करेगा। और, आपने अपने अप्रतीकार के द्वारा उतनी ही जानें गवाईं होतीं जितनी की दूसरे हिंसा का सहारा लेकर गंवाते; फिर भी आपने एक ऐसा आदर्श तो रखा है जो कभी अच्छी दशा भी ला सकता है या कम-से-कम जिसे अच्छी लानी चाहिये। परंतु आत्म बल भी, जब वह अमोघ हो उठता है तब, नाश करता है। जिन्होंने आंखे खोलकर आत्मबल का प्रयोग किया है वही जानते हैं कि यह तलवार और तोप-बंदूक से कितना अधिक भयंकर और नाशकारी होता है। और, जो अपनी दृष्टि को किसी विशिष्ट कर्म और उसके सद्यः फल तक ही सीमित नहीं रखते वे ही यह भी देख सकते हैं कि आत्म बल के प्रयोग के बाद उसके परिणाम कितने प्रचंड होते हैं, उनसे कितना नाश होता है और जो जीवन उस विनष्ट क्षेत्र पर आश्रित रहता था या पलता था उसकी भी कितनी बरबादी होती है।
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