"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 50": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
6.मनुष्य और जीवन-संग्राम

आज जिस समाज में मनुष्य रहता और पलता है उसकी रक्षा करना और उसके लिये लड़ना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है और इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपना क्षात्र कर्म करने के लिये बंधा है। इस आधुनिक व्यवस्था का परिणाम यह हुआ है कि राष्ट्र का सारा - का - सारा पुरूषत्व रक्तरंजित खाइयों में मरने ओर मारने के लिये ढकेल दिया जाता है , विचारक , कलाकार , दार्शनिक , पुजारी, व्यवसायी और करीगर, सब - के - सब अपने व्यवहारिक कर्म से अलग कर दिये जाते है, समाज का सारा जीवन अव्यवस्थ्ति हो जाता है, विचार और धर्माधर्म विवेक का भाव क्षात्र धर्म के नीचे दब जाता है, यहां तक होता है कि जिस पुरोहित को राज्य की ओर से शांति और प्रेम के भाव का प्रचार करने के लिये वृत्ति मिलती है या यह काम उसका सहज कर्म होता है उसे भी अपना धर्म त्याग देना पडता है और अपने भाइयों का कत्ल करने के लिये कसाई बन जाना पड़ता है ! और अपने भाइयों का कत्ल करने के लिये कसाई बन जाना पडता हैं इस प्रकार के लड़ाकू राज्य के आदेश द्वारा धर्माधर्म विवेक और मनुष्य के विशिष्ट स्वभाव का ही उल्लंघन होता हो सो नहीं , बल्कि राष्ट्र - संरक्षण का भाव बढते - बढते उन्माद की हद तक पहुंच जाता है और उसका वह राष्टृ - संरक्षण राष्ट्रीय आत्महत्या में बदल जाने का उत्कट प्रयास होता है।
इसके विपरीत भारतीय संस्कृति का यह मुख्य लक्ष्य था कि युद्ध और उससे होने वाला अनर्थ ओर विनाश, जहां तक हो सके, कम - से - कम हो । इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये भारतीय समाज व्यवस्था में क्षात्र - धर्म समाज के एक ऐसे छोटे - से वर्ग के लोगों में ही परिसीमित कर दिया गया था जो अपने जन्म , स्वभाव और परंपरा से इस कर्म के लिये विशेष उपयुक्त थे और इस कर्म में उनके साहस ,की अनुशासित शक्ति , उनकी परोपकार – परायणता, उनकी वीरतापूर्ण महानता आदि गुणों की वृद्धि होकर उनका आत्म - प्रस्फुटन होता था और फलतः वह जीवन उनके आत्म - विकास का एक साधन होता था, क्योंकि किसी उच्च आदर्श को सामने रखकर जो लोग योद्धा - जीवन बिताते हैं उनके आत्म - विकास के लिये यह जीवन एक क्षेत्र और अवसर बन जाता है। इस प्रकार के कर्म के जो अधिकारी थे उन्हीं के जिम्मे यह युद्ध - कर्म कर दिया गया था अन्य लोग इससे बरी थे, मारकाट और लूटमार से उनकी हर तरह से रक्षा की जाती थी, उनका जीवन और जीविका यथा संभव इससे अलग ही रखे जाते थे। मानव - स्वभाव में युद्ध और संहार करने की जो प्रवृत्तियां होती हैं उनका क्षेत्र मर्यादित कर दिया गया था, उनकी एक जातिविशेष के अंदर ही हद बांध दी गयी थी । इसके साथ ही युद्ध का जैसा उच्च नैतिक आदर्श था और धर्म युद्ध के जो मनुष्योचित वीर और उदात्त नियम थे उनसे युद्ध योद्धाओं को क्रूर नरपशु बनाने का निमित नहीं बल्कि उन्नत और उदार बनाने का कारण होता था ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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