"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 28": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
No edit summary
छो (Text replace - "भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-" to "भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. ")
पंक्ति ५: पंक्ति ५:
यह जीव का, जो आत्मिक व्यष्टि है, मूल तत्व है। जीव परिवर्तित होता है और जन्म-जन्मान्तर में उन्नति करता जाता है और जब आत्मा का ब्रह्म के साथ पूर्ण एकत्व स्थापित हो जाता है, तब वह उस आत्मिक अवस्था में पहुँच जाता है, जो उसकी भवितव्यता है; और जब तक वह दशा नहीं आती, तब तक वह जन्म और मरण के फेर में पड़ा रहता है। प्रत्येक प्राणी में अस्तित्व के सब रूप पाए जाते हैं, क्योंकि मानवीय रूप के सुनिर्धारित लक्षणों के नीचे भौतिकता, संगठन और पशुत्व की रूपरेखाएं विद्यमान हैं। भौतिक तत्व, प्राण और मन, जो इस संसार को भरे हुए हैं, हमारे अन्दर भी विद्यमान हैं। जो शक्तियां ब्राह्म जगत् में कार्य कर रही हैं, उनका अंश हममें भी है। हमारी बौद्धिक प्रकृति आत्मचेतना को उत्पन्न करती है और वह आत्मचेतना मानवीय व्यष्टि को प्रकृति के साथ उसकी मूल एकता से ऊपर उठा देती है।
यह जीव का, जो आत्मिक व्यष्टि है, मूल तत्व है। जीव परिवर्तित होता है और जन्म-जन्मान्तर में उन्नति करता जाता है और जब आत्मा का ब्रह्म के साथ पूर्ण एकत्व स्थापित हो जाता है, तब वह उस आत्मिक अवस्था में पहुँच जाता है, जो उसकी भवितव्यता है; और जब तक वह दशा नहीं आती, तब तक वह जन्म और मरण के फेर में पड़ा रहता है। प्रत्येक प्राणी में अस्तित्व के सब रूप पाए जाते हैं, क्योंकि मानवीय रूप के सुनिर्धारित लक्षणों के नीचे भौतिकता, संगठन और पशुत्व की रूपरेखाएं विद्यमान हैं। भौतिक तत्व, प्राण और मन, जो इस संसार को भरे हुए हैं, हमारे अन्दर भी विद्यमान हैं। जो शक्तियां ब्राह्म जगत् में कार्य कर रही हैं, उनका अंश हममें भी है। हमारी बौद्धिक प्रकृति आत्मचेतना को उत्पन्न करती है और वह आत्मचेतना मानवीय व्यष्टि को प्रकृति के साथ उसकी मूल एकता से ऊपर उठा देती है।


{{लेख क्रम |पिछला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-27|अगला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-29}}
{{लेख क्रम |पिछला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 27|अगला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 29}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>

१०:१९, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

7.व्यक्तिक आत्मा

वास्तविकता (ब्रह्म) स्वभावतः असीम, सर्वोच्च, निष्कलुष और अपनी एकता और परम आनन्द से इस प्रकार युक्त है कि उसमें किसी विजातीय तत्त्व का प्रवेश नहीं हो सकता। विश्व की प्रक्रिया में वे द्वैत और विरोध उत्पन्न होते हैं, जो असीम और अविभक्त वास्तविकता को आँख से ओझल कर देते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् के शब्दों में विश्व की प्रक्रिया भौतिक तत्त्व[१] (अन्न), जीवन (प्राण), मन (मनस्), बुद्धि (विज्ञान), और परम आनन्द (आनन्द) की पांच अवस्थाओं में से गुज़री है। सब वस्तुओं को जीवन की सृजनात्मक दौड़ में भाग लेने के कारण उन्हें एक आन्तरिक प्रेरणा दी गई है। मानव-प्राणी विज्ञान या बुद्धि की चौथी अवस्था में है। वह अपने कर्मों का स्वामी नहीं है। उसे उस सार्वभौम वास्तविकता का ज्ञान है, जो इस सारी योजना के पीछे कार्य कर रही है। वह भौतिक तत्त्व, जीवन और मन को जानता प्रतीत होता है।
उसने एक बड़ी सीमा तक भौतिक जगत्, प्राणि जगत् और यहां तक कि मन के अस्पष्ट क्रिया-कलापों पर अधिकार कर लिया है, परन्तु अभी तक वह पूर्णतया प्रबुद्ध चेतना नहीं बन सका। जिस प्रकार भौतिक तत्त्व के बाद जीवन और जीवन के बाद मन और मन के बाद बुद्धि का स्थान आता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् मनुष्य एक उच्चतर और दिव्य जीवन के रूप में विकसित होगा। निरन्तर अधिकाधिक आत्मवृद्धि प्रकृति की तीव्र प्रेरणा रही है। संसार के लिए परमात्मा का ध्येय या मनुष्य के लिए ब्रह्माण्डीय भवितव्यता यह है कि इसी मर्त्‍य शरीर द्वारा अमर महत्त्वाकांक्षी को प्राप्त किया जाए; इस भौतिक शरीर और बौद्धिक चेतना में और इसी के द्वारा दिव्य जीवन को उपलब्ध किया जाए। ब्रह्म मनुष्य के अन्तर्तम में निवास करता है और उसे विनष्ट नहीं किया जा सकता। यह आन्तरिक ज्योति है, एक छिपा हुआ साक्षी, जो सदा बना रहता है और जो जन्म-जन्मान्तर में अनश्वर है। उसे मृत्यु, जरा या दोष छू नहीं सकते।
यह जीव का, जो आत्मिक व्यष्टि है, मूल तत्व है। जीव परिवर्तित होता है और जन्म-जन्मान्तर में उन्नति करता जाता है और जब आत्मा का ब्रह्म के साथ पूर्ण एकत्व स्थापित हो जाता है, तब वह उस आत्मिक अवस्था में पहुँच जाता है, जो उसकी भवितव्यता है; और जब तक वह दशा नहीं आती, तब तक वह जन्म और मरण के फेर में पड़ा रहता है। प्रत्येक प्राणी में अस्तित्व के सब रूप पाए जाते हैं, क्योंकि मानवीय रूप के सुनिर्धारित लक्षणों के नीचे भौतिकता, संगठन और पशुत्व की रूपरेखाएं विद्यमान हैं। भौतिक तत्व, प्राण और मन, जो इस संसार को भरे हुए हैं, हमारे अन्दर भी विद्यमान हैं। जो शक्तियां ब्राह्म जगत् में कार्य कर रही हैं, उनका अंश हममें भी है। हमारी बौद्धिक प्रकृति आत्मचेतना को उत्पन्न करती है और वह आत्मचेतना मानवीय व्यष्टि को प्रकृति के साथ उसकी मूल एकता से ऊपर उठा देती है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शाब्दिक अर्थ है भोजन।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन