"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 78": अवतरणों में अंतर
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अर्जुन एक महान् आत्मिक तनाव में से गुजर रहा है। जब वह अपने-आप को सामाजिक दायित्वों से पृथक् कर लेता है और पूछता है कि उसे समाज द्वारा उससे प्रत्याशित कत्र्तव्यों को क्यों पूरा करना चाहिए, तो वह अपने सामाजिकीकृत आत्म को पीछे कर देता है और अपने-आप को व्यष्टि, एकाकी और सबसे पृथक् रूप में पूरी तरह अनुभव करता है। वह संसार के सम्मुख भयावनी अवस्था में पटक दिए गए एक अजनबी व्यक्ति के समान खड़ा होता है। यह नई स्वतन्त्रता, चिन्ता, एकाकीपन, सन्देह और असुरक्षा की गम्भीर अनुभूति उत्पन्न कर देती है। यदि उसे सफलतापूर्वक काम करना हो, तो उसे इन अनुभूतियों पर विजय पानी ही होगी। | अर्जुन एक महान् आत्मिक तनाव में से गुजर रहा है। जब वह अपने-आप को सामाजिक दायित्वों से पृथक् कर लेता है और पूछता है कि उसे समाज द्वारा उससे प्रत्याशित कत्र्तव्यों को क्यों पूरा करना चाहिए, तो वह अपने सामाजिकीकृत आत्म को पीछे कर देता है और अपने-आप को व्यष्टि, एकाकी और सबसे पृथक् रूप में पूरी तरह अनुभव करता है। वह संसार के सम्मुख भयावनी अवस्था में पटक दिए गए एक अजनबी व्यक्ति के समान खड़ा होता है। यह नई स्वतन्त्रता, चिन्ता, एकाकीपन, सन्देह और असुरक्षा की गम्भीर अनुभूति उत्पन्न कर देती है। यदि उसे सफलतापूर्वक काम करना हो, तो उसे इन अनुभूतियों पर विजय पानी ही होगी। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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१०:५२, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
अर्जुन की दुविधा और विषाद
मनुष्य और परमात्मा को मध्यस्थ के रूप में किसी तीसरे पक्ष की आवश्यकता उससे अधिक नहीं है, जितने कि हम स्वयं हैं और उसे पाने के लिए हमारे पास केवल प्रेमोद्दीप्त हृदय, एक विशुद्ध संकल्प होना ही काफी है। अर्जुन आने परमात्मा के सम्मुख अनावृत और किसी भी मध्यस्थ के बिना अकेला खड़ा होता है। परमात्मा और मनुष्य के मध्य एक अविरत सम्बन्ध रहता है और उनका संवाद तब तक चलता रहता है, जब तक कि उद्देश्य की पूर्ण समस्वरता स्थापित नहीं हो जाती।
यह दैवीय मूल तत्व हमसे दूर नहीं है, अपतिु बिलकुल निकट है। परमात्मा कोई दूरस्थ दर्शक या समस्या को दूरस्थ निर्णायक नहीं , अपितु एक मित्र, सखा है, जो सदा, विहारशय्यासनभोजनेषु, हमारे साथ रहता है (11,42) ऋग्वेद में दो पक्षियों का उल्लेख किया गया है, जिनके पंख सुन्दर हैं, जो स्वभावतः मित्र हैं और जो एक ही वृक्ष पर साथ-साथ रहते हैं।[१]विषादः उदासी। अध्याय का अन्त निराशा और दुःख में होता है और इसे भी ’योग’ कहा गया है, क्यों कि आत्मा का यह अन्धकार भी आध्यात्मिक जीवन की ओर प्रगति के लिए एक आवश्यक सोपान है। हममें से अधिकांश लोग परम प्रश्नों का सामना किए बिना ही सारा जीवन बिता देते है।
कभी विरले संकट के क्षण में ही, जब हमारी महत्वाकांक्षाएं ढेर हुई हमारे पैरों के पास पड़ी होती हैं, जब हमें पश्चात्ताप तथा व्यथा के साथ अनुभव होता है कि हमने अपने जीवन की क्या दुर्दशा कर डाली है, हम चिल्ला उठते हैः ’’हम यहाँ किस लिए हैं?’’ ’’इस सबका क्या अर्थ है? और हमें यहाँ से कहाँ जाना है?’’ ’’मेरे परमात्मा, मेरे परमात्मा, तूने मूझे क्यों त्याग दिया है?’’ द्रौपदी चिल्ला उठती है: ’’न पति मेरे हैं, न पुत्र, न सम्बन्धी, न भाई, न पिता मेरे हैं और हे कृष्ण, तुम भी मेरे नहीं हो।’’[२]
अर्जुन एक महान् आत्मिक तनाव में से गुजर रहा है। जब वह अपने-आप को सामाजिक दायित्वों से पृथक् कर लेता है और पूछता है कि उसे समाज द्वारा उससे प्रत्याशित कत्र्तव्यों को क्यों पूरा करना चाहिए, तो वह अपने सामाजिकीकृत आत्म को पीछे कर देता है और अपने-आप को व्यष्टि, एकाकी और सबसे पृथक् रूप में पूरी तरह अनुभव करता है। वह संसार के सम्मुख भयावनी अवस्था में पटक दिए गए एक अजनबी व्यक्ति के समान खड़ा होता है। यह नई स्वतन्त्रता, चिन्ता, एकाकीपन, सन्देह और असुरक्षा की गम्भीर अनुभूति उत्पन्न कर देती है। यदि उसे सफलतापूर्वक काम करना हो, तो उसे इन अनुभूतियों पर विजय पानी ही होगी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ साथ ही तुलना कीजिएः ’’हे सर्वज्ञ परमात्मा, तू सदा हमारे निकट विद्यमान है; अन्दर या बाहर जो भी कोई पाप हो, उसे तू देख लेता है।’’ सर्वज्ञ त्वं सदा नित्यं सन्निधौ बर्तसे च नः । अन्तर्बहिश्च यत्किच्चित्पापं तत्पश्यसि स्वयम्।।
- ↑ नैव मे पतयः सन्ति, न पुत्रा न च बान्धवाः । न भ्रातरो, न च पिता, नैव त्वं मधुसूदन ।।