"अंग": अवतरणों में अंतर
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अंग
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 08 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भगवतशरण उपाध्याय, बलदेव उपाध्याय,नागेन्द्रनाथ उपाध्याय |
'अंग' एक प्राचीन जनपद जो बिहार राज्य के वर्तमान भागलपुर और मुंगेर जिलों का समवर्ती था। अंग की राजधानी चंपा था। आज भी भागलपुर के एक मुहल्ले का नाम चंपानगर है। महाभारत की परंपरा के अनुसार अंग के वृहद्रथ और अन्य राजाओं ने मगध को जीता था, पीछे बिंबिसार और मगध की बढ़ती हुई साम्राज्य लिप्सा का वह स्वयं शिकार हुआ। राजा दशरथ के मित्र लोमपाद और महाभारत के अंगराज कर्ण ने वहाँ राज किया था। बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तरनिकाय में भारत के बुद्ध पूर्व सोलह जनपदों में अंग की गणना हुई है।
व्युत्पत्ति के अनुसार अंग शब्द का अर्थ 'उपकारक' होता है। अत: जिसके द्वारा किसी वस्तु का स्वरूप जानने में सहायता प्राप्त होती है, उसे भी अंग कहते हैं। इसीलिए वेद के उच्चारण, अर्थ तथा प्रतिपाद्य कर्मकांड के ज्ञान में सहायक तथा उपयोगी शास्त्रों को 'वेदांग' कहते हैं। इनकी संख्या छह है।
- शब्दमय मंत्रों के यथावत् उच्चारण की शिक्षा देने वाला अंग 'शिक्षा' कहलाता है।
- यज्ञों के कर्मकांड का प्रयोजक शास्त्र 'कल्प' माना जाता है जो श्रोतसूत्र, गुहासूत्र तथा धर्मसूत्र के भेद से तीन प्रकार का होता है।
- पद के स्वरूप का निर्देशक व्याकरण।
- पदों की व्युत्पत्ति बतलाकर उनका अर्थ निर्णायक 'निरुक्त'।
- छंदों का परिचायक छंद।
- यज्ञ के उचित काल का समर्थक ज्योतिष।
साहित्य, दर्शन एवं साधन में क्रमश: प्रकरणों, तत्वों और विभागों अथवा अवस्थाओं का विभाजन अंग रूप में मिलता है। बौद्ध धार्मिक साहित्य में धर्म के नौ अंग बतलाए गए हैं-सुत्त, गेय्य, वैय्याकरण, गाथा, उदान, इतिवुत्तक, अच्युतधम्म तथा वेदल्ल। वेदांग की तरह बौद्ध प्रवचनों के ये अंग स्वीकृत हैं। इसी प्रकार जैनागमों के अंगों की संख्या 11 है- आचारांगसूत्र, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्म कथा, उपसकदया, अंतकृद्दसा, अनुत्तरोपयादिकदशा, प्रश्नव्याकरणानि, विपाकश्रुत। अंगों का एक अर्थ प्रकरण भी है। विभिन्न साधनात्मक क्रियाओं एवं अवस्थाओं अथवा तत्वों का अंग रूप में विभाजन मिलता है, जैसे बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग, पतंजलि का अष्टांगयोग। इस प्रकार का विभाजन परवर्ती साधनात्मक साहित्य में भी देखने को मिलता है जैसे संत रज्जव के 'अंगवधु' और 'सर्वगी' नामक संग्रह ग्रंथ। वीरशैव सिद्धांत मत के अनुसार परम शिव के दो रूपों की उत्पत्ति लिंग (शिव) और अंग (जीव) के रूप में बताई गई है। प्रथम तो उपास्य है और दूसरा उपासक। यह उत्पत्ति शक्ति के शोभमात्र से होती है। इस अंग की शक्ति निवृत्ति उत्पन्न करने वाली भक्ति है। इस अंग के तीन प्रकार बताए गए हैं-- योगांग, भोगांग, और त्यागांग। अंग के मलों का निराकरण भक्ति से ही संभव है। जिसकी प्राप्ति परम शिव के अनुग्रह से ही होती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ