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|लेखक =आचार्य पंडित रामचंद्र शुक्ल, डॉक्टर भगीरथ मिश्र | |लेखक =आचार्य पंडित रामचंद्र शुक्ल, डॉक्टर भगीरथ मिश्र | ||
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|संस्करण=सन् | |संस्करण=सन् 1965 ईसवी | ||
|स्रोत=आचार्य पंo रामचंद्र शुक्ल : 'हिंदी साहित्य का इतिहास', पंचम संस्कo, २००६; संपाo डॉo धीरेंद्र वर्मा तथा अन्य; हिंदी साहित्य कोश, भाo २, ज्ञानमंडल, वाराणसी संo २०२०। डॉo भगीरथ मिश्र : हिंदी काव्यशास्त्र का इतिहास, द्विo संo स्कo, संo २०१५, लखनऊ विश्वविद्यालय। | |स्रोत=आचार्य पंo रामचंद्र शुक्ल : 'हिंदी साहित्य का इतिहास', पंचम संस्कo, २००६; संपाo डॉo धीरेंद्र वर्मा तथा अन्य; हिंदी साहित्य कोश, भाo २, ज्ञानमंडल, वाराणसी संo २०२०। डॉo भगीरथ मिश्र : हिंदी काव्यशास्त्र का इतिहास, द्विo संo स्कo, संo २०१५, लखनऊ विश्वविद्यालय। | ||
|उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | |उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
१२:३४, १६ अक्टूबर २०११ के समय का अवतरण
थान कवि
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 468 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | आचार्य पंडित रामचंद्र शुक्ल, डॉक्टर भगीरथ मिश्र |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
स्रोत | आचार्य पंo रामचंद्र शुक्ल : 'हिंदी साहित्य का इतिहास', पंचम संस्कo, २००६; संपाo डॉo धीरेंद्र वर्मा तथा अन्य; हिंदी साहित्य कोश, भाo २, ज्ञानमंडल, वाराणसी संo २०२०। डॉo भगीरथ मिश्र : हिंदी काव्यशास्त्र का इतिहास, द्विo संo स्कo, संo २०१५, लखनऊ विश्वविद्यालय। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रामफेर त्रिपाठी |
थान कवि पूरा नाम 'थानराय' था। डौंड़ियाखेर (रायबरेली) के निवासी और सुकवि चंदन बंदीजन के भानजे थे। निहालराय पिता, महासिंह पितामह और लालराय इनके प्रपितामह थे। चँड्रा (बैसवारा) के स्थानीय रईस दलेलसिंह के नाम पर इन्होंने संवत 1840 में 'दलेलप्रकाश' संज्ञक रीतिग्रंथ की रचना की, जिसमें रसों, भावों, गणों अलंकारों और काव्य गुणदोषों का विषयानुक्रम रहित निरूपण हुआ है। यत्र तत्र इसमें रागरागिनियों के लक्षण भी कहे गए हैं और अंत में चित्रकाव्य को भी स्थान दिया गया है। वणर्य विषय के वैविध्य और उनके क्रमानुसारी वर्णनों के अभाव को देखकर यही कहना पड़ता है कि कवि को जितना इष्ट अपने बहुविषयव्यापी ज्ञान का प्रदर्शन करना है उतना उनका शास्त्रीय वर्णन-विवेचन नहीं। इतना होते हुए भी जो भी विषय इन्होंने लिया है उन पर उत्तमोत्तम रचनाएँ की हैं। इसलिये पंo रामचंद्र शुक्ल का कहना था कि 'यदि अपने ग्रंथ को इन्होंने भानमती का पिटारा न बनाया होता और एक ढंग पर चले होते तो इनकी बड़े कवियों की सी ख्याति होती।' इनकी अनुप्रासयुक्त ब्रजभाषा पर्याप्त ललित, मधुर और प्रवाहपूर्ण है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ