वाणिज्य
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वाणिज्य
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 10 |
पृष्ठ संख्या | 405-406 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी, फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | दयाशंकर दुबे |
संदर्भ ग्रंथ | श्री कृष्णदत्त भट्ट : भारतवर्ष का आर्थिक इतिहास; श्रीकृष्ण वाजपेयी : भारतीय व्यापार का इतिहास; श्री कांतानाथ गर्ग : आधुनिक व्यापार; श्री केदारनाथ प्रसाद : व्यापारी |
धनप्राप्ति के उद्देश्य से वस्तुओं का क्रय विक्रय करना ही वाणिज्य है। संसार में प्रत्येक व्यक्ति की कई आवश्यकताएँ होती हैं। उनको प्राप्त करने के लिए वह आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। इनमें से कुछ वस्तुएँ तो वह स्वयं बना लेता है और अधिकांश वस्तुएँ उसे बाजार से मोल खरीदनी पड़ती हैं। वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए उसे धन की आवश्यकता पड़ती है, और इस धन को प्राप्त करने के लिए या तो वह दूसरों की सेवा करता है अथवा ऐसी वस्तुएँ तैयार करता है या क्रय विक्रय करता है जो दूसरों के लिए उपयोगी हों। वस्तुओं का रूप बदलकर उनको अधिक उपयोगी बनाने का कार्य उद्योग माना जाता है। वाणिज्य में वे सब कार्य सम्मिलित रहते हैं जो वस्तुओं के क्रय विक्रय में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं। जो व्यक्ति वाणिज्य संबंधी कोई कार्य करता है उसे वणिक कहते हैं।
वाणिज्य के अंग
वाणिज्य के दो प्रधान अंग हैं-दूकानदार और व्यापार। जब वस्तुओं का क्रयविक्रय किसी एक स्थान या दूकान से होता है, तब उस संबंध के सब कार्य दुकानदारी के अंदर आते हैं। जब वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान भेजकर विक्रय किया जाता है, तब उस संबंध के सब कार्य व्यापार के अंदर समझे जाते हैं। देशी व्यापार में वस्तुओं का क्रयविक्रय एक ही देश के अंदर होता है। विदेशी व्यापार में वस्तुओं का क्रयविक्रय दूसरे देशों के साथ होता है। बड़े पैमाने पर दूर दूर के देशों से व्यापार के लिए बड़ी पूँजी की आवश्यकता होती है जो सम्मिलित पूँजीवादी कंपनियों और वाणिज्य बैंकों द्वारा प्राप्त होती है। संसार के भिन्न भिन्न देशों में संसारव्यापी वाणिज्य में लगे हुए व्यक्तियों ने मिलकर प्रत्येक देश में वाणिज्य मंडलों (Chambers of Commerce) की स्थापना कर ली है। इन मंडलों का प्रधान कार्य देश के वाणिज्य के हितों की सम्मिलित रूप से रक्षा करना और सरकार द्वारा रक्षा करना है। वाणिज्य संबंधी कार्यों का उचित रूप से नियंत्रण करने के लिए प्रत्येक देश की सरकार जो कानून बनाती हैं, वे वाणिज्य विधि कहलाते हैं।
वाणिज्य और वणिक
वाणिज्य में सफलता प्राप्त करने के लिए वणिक् को विक्रय कला का व्यावहारिक ज्ञान होना आवश्यक है। उसे हिसाब रखने की पद्धति को भी ठीक तरह से जानना और उपयोग में लाना पड़ता है। अपने कार्यों की जोखिम कम करने के लिए उसे अपने माल का बीमा कराना होता है। इसलिए उसे इस विषय का ज्ञान भी प्राप्त करना पड़ता है। अपने व्यापार को दूर दूर तक देशों में फैलाने के लिए उसे पत्रव्यवहार और विज्ञापनकला का उचित उपयोग करना पड़ता है। वाणिज्य में स्वतंत्र बुद्धि और दृढ़ विश्वास की अत्यंत आवश्यकता है। ईमानदारी द्वारा ही वणिक अपने कार्य की प्रसिद्धि प्राप्त करता है। उसकी बात की सच्चाई उसकी साख को बढ़ाती है, जिससे वह आवश्यक पूँजी आसानी से प्राप्त कर लेता है।
वाणिज्य का प्रसार और उन्नति के साधन
किसी देश के उद्योग धंधों की दशा का उसके वाणिज्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। जिस देश में उद्योग धंधों द्वारा वस्तुओं की उत्पत्ति बराबर बढ़ती रहती है, उसका वाणिज्य भी उन्नत दशा में रहता है। किसी देश के वाणिज्य की उन्नति उसके यातायात के साधनों की दशा पर बहुत कुछ निर्भर रहती है। पहाड़ी देशों में, जहाँ सड़कों का प्राय: अभाव रहतो है, वाणिज्य और व्यापार पिछड़ी हुई दशा में रहता है। रेलों के प्रचार और समुद्री जहाजों की उन्नति से बीसवीं सदी में संसार के अधिकांश देशों में वाणिज्य की वृद्धि में बहुत सहायता मिली है। अब वायुयान द्वारा भी कीमती वस्तुओं का व्यापार होने लगा है। इससे भी वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला है।
जब किसी देश में अशांति रहती है, और चोर तथा डाकुओं का भय बढ़ जाता है, तब उसके वाणिज्य पर भी उसका बुरा प्रभाव पड़ता है। वाणिज्य की उन्नति में एक और बाधा उस आयातकर की होती है, जो कोई देश अपने उद्योग धंधों को दूसरे देशों की प्रतियोगिता से बचाने के लिए कुछ वस्तुओं के आयात पर लगाता है।
वाणिज्य की भावना
वाणिज्य में धनप्राप्ति की भावना ही प्रधान रहती है। कभी कभी स्वार्थ की भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि वणिक् लोग वस्तुओं में मिलावट करके बेचते हैं, माल के तौलने में बेईमानी करते हैं और झूठे विज्ञापन देकर अथवा चोरबाजारी करके अपने ग्राहकों को ठगने का प्रयत्न करते हैं। वे इस बात का विचार नहीं करते कि उनके इन प्रयत्नों से दूसरों की क्या हानि होती है। वे अपने कर्तव्य या धर्म का कोई विचार नहीं करते, इसी कारण हमारे वणिक् धनवान् होने पर भी असंतुष्ट बने रहते हैं और जीवन को शांतिमय नहीं बना पाते। जब वणिक् अपने सामने उच्च आदर्श रखेंगे और अपने सब कार्यों में दूसरों के स्वार्थों का उतना ही ध्यान रखेंगे जितना वे अपने स्वार्थों का रखते हैं तब वाणिज्य भी धनोपार्जन के साथ ही साथ सुख और शांति का भी साधन हो जावेगा।
वाणिज्यवाद
वाणिज्यवाद (mercantilism) का मुख्य उद्देश्य विदेशी व्यापार को इस तरह से संगठित करना था जिससे देश के अंदर दूसरे देशों से सोना एवं चाँदी बराबर अधिक मात्रा में आती रहे। वाणिज्यवादी सरकार द्वारा विदेशी व्यापार की ऐसी नीति निश्चित करना चाहते थे जिससे देश के निर्यात की मात्रा देश के आयात से सदा ही अधिक रहे और दूसरे देश निर्यात की रकम को पूरा करने के लिए सोना बराबर भेजते रहें। बाद में अंग्रेज अर्थशास्त्रियों ने वाणिज्यनीति को नया रूप दिया। इसके अनुसार वणिक् समाज और सरकार को विदेशी व्यापार में आयात और निर्यात दोनों को इस प्रकार से बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए जिससे देश में उपयोगी वस्तुओं का बाहुल्य हो जाए और वस्तुओं का अधिक परिमाण में उपयोग करने से देशवासियों के रहन सहन का दर्जा बराबर बढ़ता जाए।
भारत में वाणिज्य
भूत काल में, भारत भी वाणिज्य संबंधी कार्यों में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। प्राचीन आर्यों की आर्थिक व्यवस्था का पता वैदिक साहित्य से लगता है। वैदिक काल से ही द्रविड़ तथा आर्य लोगों ने मिस्र, असीरिया और बैबिलोन से व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संबंध स्थापित किए। ईसामसीह के सैकड़ों वर्ष पूर्व से ही भारत में शिल्प और वाणिज्य का सर्वांगीण विकास हुआ। वणिकों के संघों का उल्लेख उस समय के साहित्य में मिलता है। उस समय के विदेशी यात्रियों ने यहाँ के उन्नत उद्योग धंधे और वाणिज्य की बड़ी प्रशंसा की है। भारत के करीब तीन हजार वर्षों तक समुद्र पर अपना प्रभुत्व जारी रखा और अपने व्यापार और वाणिज्य की खूब उन्नति की। वह सैकड़ों वर्षों तक संसार का नेता और वाणिज्य का केंद्र बना रहा। उस काल में भारतवासियों ने वाणिज्य में अपने लाभ के साथ ही साथ दूसरों को लाभ पहुँचाने का हमेशा ध्यान रखा है।
मुग़ल काल में भी भारत के गृह उद्योग उन्नत दशा में थे और एशिया, यूरोप और अफ्रीका के अनेक देशों में यहाँ से तैयार माल जाता था। संसार के कई देश तो केवल भारत के वस्त्रों पर ही निर्भर रहते थे। सूती, रेशमी तथा ऊनी वस्त्र तैयार करनेवाले भारतीय कारीगरों का कौशल संसार में दूर दूर तक फैल गया था। वस्त्रों के अतिरिक्त मोती, मूँगा, हाथीदाँत, मसाले, सुगांधित द्रव्य इत्यादि का भी खूब रोजगार होता था।
भारत से वाणिज्य द्वारा लाभ उठाने की इच्छा से ही यूरोपवासियों ने भारत में पदार्पण किया और उसके व्यापार पर कब्जा करने का प्रयत्न किया। अंग्रेजों ने धीरे धीरे संपूर्ण भारत पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व जमा लिया। इन अंग्रेजों के समय में भारत के गृह उद्योग धंधे नष्ट कर दिए गए और देशी जहाजी बेड़े का भी अंत हो गया। भारत के वाणिज्य पर अंग्रेजों का प्रभुत्व होने से भारतवासियों की आर्थिक दशा दयनीय हो गई। स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत को संसार में एक बार फिर से वाणिज्य का प्रधान केंद्र बनाने के प्रयास किए जाने लगे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ