अग्रिपा
अग्रिपा
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 79 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भोलानाथ शर्मा,औंकारनाथ उपाध्याय। |
अग्रिपा संदेहवादी ग्रीक दार्शनिक। इसका समय ठीक प्रकार से ज्ञात नहीं है, पर संभवत यह इनेसिदेमस के पश्चात् हुआ था। इसने निर्भ्रांत सुनिश्चित ज्ञान की संभाव्यता के विरुद्ध उसके विषय में संदेह करने के पाँच आधार या हेतु बतलाए हैं
(1) वैमत्य,
(2) अनंत विस्तार,
(3) सापेक्षिकता,
(4) उपकल्पना (हाइपॉथेसिस)
(5) परस्पराश्रित अनुमान हैं।
अग्रिपा का उद्देश्य यह था कि उसके ये पाँच हेतु इनेसिदेमस् इत्यादि प्राचीन संदेहवादियों के दस हेतुओं का स्थान ग्रहण कर लें।
अग्रिपा, मार्कस विप्सानिअस (63-12 ई. पू.)
यह प्रसिद्ध रोमन सम्राट ओगुस्तस का परम मित्र और सेनापति था तथा उसका प्रिय सलाहकार भी। इन दोनों का उल्लेख मिस्र की रानी क्लियोपात्रा के संबंध में हुआ है। उससे ओगुस्तस की बेटी भी ब्याही थी, यद्यपि उसकी उम्र सम्राट के बराबर ही थी और दोनों ने एक साथ ही यूनान में अध्ययन किया था। अग्रिपा अंत तक अपने मित्र सम्राट् के साथ रहा था और निरंतर उसने उसके कार्य सम्पन्न किए। 37 ई. पू. में वह रोम का कौंसल हुआ। रोम की नौसेना का अध्यक्ष होने के नाते उसने उस महान् नगर के बंदरगाह का सुंदर प्रबंध किया और नौसेना को नए ढंग से संगठित किया। रोम नगर की प्रधान इमारतों का जीर्णोद्धार कराया और नई इमारतें, नालियाँ, स्नानगृह, उद्यान आदि बनवाए। उसने ललित कलाओं को अपना संरक्षण दिया और जो यह कहा जाता है कि ओगुस्तस ने पाया रोम नगर जो ईटं का था, पर छोड़ा उसे संगमरमर का बनाकर वस्तुत सम्राट के पक्ष में उतना सही नहीं है जितना अग्रिपा के पक्ष में और उस दिशा में जो कुछ भी सम्राट कर सका वह अग्रिपा की कार्यशीलता से। मार्क आंतोनी के विरुद्ध आक्तियन की लड़ाई सम्राट के लिए अग्रिपा ने ही जीती थी और परिणामस्वरूप अपनी भतीजी मारसेवला का विवाह उसने अग्रिपा से कर दिया था। 23 ई. पू. में अग्रिपा पूर्व का गवर्नर बनाकर भेजा गया। वहाँ से लौटने पर सम्राट ने अपनी मित्रता उसके साथ दृढ़ करने के लिए उससे पत्नी का तलाक दिलाकर उसे अपनी बेटी ब्याह दी। कुछ काल बाद उसे फिर पूर्व जाना पड़ा और वहाँ उसे अपनी न्यायप्रियता और सुशासन से लोगों का हृदय जीत लिया। पनोनिया का विद्रोह बिना रक्तपात के दबाकर उसने और भी लोकप्रियता अर्जित की। 51 वर्ष की उम्र में अग्रिपा की कंपानिया में मृत्यु हुई। वह लेखक भी था। उसने भूगोल पर काफी लिखा है। उसने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जो अब नहीं मिलती।
अग्रिपा, हेरोद प्रथम (10 ई. पू.-44 ई.)
अरिस्तिबोलुस का पुत्र हेरोद महान् का पौत्र; लगभग 10 ई. पू. में पैदा हुआ। उसका वास्तविक नाम मार्कस यूलिअस अग्रिपा था। अपने शैशव और युवा काल में वह रोम के सम्राट तिबेरिअस के दरबार में रहा। वहाँ उसके ऊपर काफी ऋण हो गया तो उसके चाचा ने उसे एगोरानोमस अर्थात् मंडियों का ओवरसियर बनवा दिया और उपहार में उसे बहुत सा द्रव्य दिया। सन् 37 ई. में रोम के सम्राट केलीगुला ने प्रसन्न होकर उसे बतानी और कोनितिस का शासक बनाया। सन् 41 ईस्वी में जब क्लादिअस रोम का सम्राट बना तो अग्रिपा हेरोद जूदा का शासक बना दिया गया। यहूदी उसके शासन से बहुत संतुष्ट थे। उसने जुरूसलम की चहारदीवारियों को मजबूत बनाया और अपने सामंत शासकों को अनुशासन में रखा। सन् 44 ई. में उसकी हत्या कर दी गई। उसकी हत्या के पश्चात् रोम के सम्राट ने जूदा के राजपद को समाप्त कर दिया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ