अग्न्याशय के रोग
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अग्न्याशय के रोग
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 78 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | मुकुन्दस्वरूप शर्मा। |
अग्न्याशय के रोग अन्य अंगों की भाँति अग्न्याशय में भी दो प्रकार के रोग होते हैं। एक बीजाणुओं के प्रवेश या संक्रमण से उत्पन्न होने वाले और दूसरे स्वयं ग्रंथि में बाह्य कारणों के बिना ही उत्पन्न होने वाले। प्रथम प्रकार के रोगों में कई प्रकार की अग्न्याशयार्तियाँ होती है। दूसरे प्रकार के रोगों में अश्मरी, पुटो (सिस्ट), अर्बुद और नाड़्व्रीाण या फिस्चुला हैं।
अग्न्याशयाति (पैनक्रिएटाइटिस) दो प्रकार की होती हैं, एक उग्र और दूसरी जीर्ण। उग्र अग्न्याशयाति प्राय पित्ताशय के रोगों या आमाशय के ्व्राण से उत्पन्न होती है; इसमें सारी ग्रंथि या उसके कुछ भागों में गलन होने लगती है। यह रोग स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक होता है और इसका आरंभ साधारणत 20 और 40 वर्ष के बीच की आयु में होता है। अकस्मात् उदर के ऊपरी भाग में उग्र पीड़ा, अवसाद (उत्साहहीनता) के से लक्षण, नाड़ी का क्षीण हो जाना, ताप अत्यधिक या अति न्यून, ये प्रारंभिक लक्षण होते हैं। उदर फूल आता है, उदरभित्ति स्थिर हो जाती है, रोगी की दशा विषम हो जाती है। जीर्ण रोग से लक्षण उपर्युक्त के ही समान होते हैं किंतु वे तीव्र नहीं होते। अपच के से आक्रमण होते रहते हैं। इसके उपचार में बहुधा शस्त्र कर्म आवश्यक होता है। जीर्ण रूप में औषधोपचार से लाभ हो सकता है। अश्मरी, पुटी, अर्बुद और नाड़्व्रीाणों में केवल शस्त्र कर्म ही चिकित्सा का साधन है। अर्बुदों में कैंसर अधिक होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ