अध्यात्मवाद

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लेख सूचना
अध्यात्मवाद
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 102,103
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1973 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक रामचंद्र पांडेय ।

अध्यात्मवाद उस विचारधारा का नाम है जिसमें आत्मा को ही सबका मूल माना जाता है। उपनिषदों तथा महाभारत में अध्यात्म शब्द का प्रयोग 'शरीर' के अर्थ में हुआ है, किंतु कालांतर में चैतन्य आत्मतत्व के अर्थ में यह शब्द रूढ़ हो गया। पश्चिम में ग्रीक दार्शनिक अफलातून ने सर्वप्रथम इस विषय पर विचार किया। उसने संसार के मूल में अभौतिकतत्व की स्थिति मानी और उसे 'इंडिया' (आइडिया) नाम दिया। उसके बाद उन सभी दर्शनों के लिए 'आइडियलिज़्म' शब्द का व्यवहार होने लगा जिनके अनुसार भौतिक जगत्‌ का मूल अभौतिक तत्व है। अध्यात्मवाद और 'आइडियलिज़्म' समानार्थक शब्द हैं।

ज्ञान जीव को जड़ से पृथक करता है। ज्ञान के लिए ज्ञान का विषय, ज्ञाता और विषय तथा ज्ञाता का संबंध (ज्ञान) होना आवश्यक है। इनमें से एक के भी अभाव में ज्ञान संभव नहीं है। फिर भी तीनों में से ज्ञाता का स्थान महत्वपूर्ण है, क्योंकि ज्ञाता के अभाव में विषय और संबंध का कोई अर्थ नहीं। यथार्थवादी दार्शनिक ज्ञान को विषय और संबंध से उत्पन्न गुण मानते हैं। किंतु जब विषय जड़ है और ज्ञाता (आत्मा) चेतन है तब इन दोनों में स्वभावभेद होने के कारण कार्य-कारण-भाव संबंध कैसे हो सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में कुछ दार्शनिक आत्मा को भी पृथ्वी, जल आदि की तरह द्रव्य मान लेते हैं और कुछ आत्मा की चेतनता की रक्षा करने के लिए विषय को आत्मा से अभिन्न मानते हैं। किंतु ज्ञाता यदि पृथ्वी आदि की तरह एक पदार्थ है तथा ज्ञान उसका गुण मात्र है तो वह ज्ञाता अपने आपमें पत्थर की तरह चेतनाशून्य तत्व होगा। साथ ही यह भी प्रश्न उठता है कि ज्ञाता स्वयं ज्ञान का विषय नहीं होता है या नहीं। ज्ञाता को भी ज्ञान का विषय मान लेने पर ज्ञाता को जीतनेवाले एक अलग ज्ञाता की स्थिति माननी पड़ेगी। इस तरह अलग ज्ञाता मानने का कोई अंत न होगा। यदि ज्ञाता स्वयं भी नहीं जानता तो 'मैं जानता हूँ', इस अनुभव का क्या होगा? इसलिए ज्ञाता को चेतनस्वरूप मानना चाहिए, चेतना और ज्ञाता में गुण-गुणी-संबंध तर्क की दृष्टि से असंगत है।

चेतन आत्मा सभी ज्ञान का मूलाधार है। पर इस आत्मा का जड़ विषय के साथ संबंध कैसे संभव है? अध्यात्मवाद में इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए विषय को ज्ञाता से अपृथक माना गया है। ज्ञान में प्रतिभासित विषय सर्वदा बौद्धिक होता है, पदार्थ अपने भौतिक रूप में ज्ञान के विषय नहीं होते। मानो एक ही आत्मा ज्ञाता और ज्ञेय के रूप में द्विधा विभक्त होकर ज्ञान की उत्पत्ति करती है।

विषय और ज्ञाता को एक तत्व के ही दो रूप मान लेने पर स्वभावत: बाह्म जगत्‌ का अस्तित्व स्वप्नवत्‌ मानना पड़ेगा। किंतु स्वप्न और जाग्रत का अंतर सर्वानुभवसिद्ध है। योगाचर बौद्ध दर्शन तथा गौड़वाद के मत में स्वप्न और जगत्‌ के अनुभव में वास्तविक भेद नहीं है। अतएव अध्यात्मवाद के मूल सिद्धांतों में सत्ता के दो या तीन स्तर स्वीकार किए गए हैं। व्यावहारिक रूप से हम जाग्रत अवस्था के अनुभवों को स्वप्नावस्था से पृथक मानते हैं। इस भेद का मूल कारण है स्वप्न का मिथ्यात्व। वस्तु का जो रूप अनुभूत होता है, कालांतर में उसका अपलाप हो जाता है इसलिए उसका अनुभवगम्य रूप ही मिलता है। स्वप्न में अनुभूत विषय इसी कारण जाग्रत अवस्था में मिथ्या कहे जाते हैं। अतएव स्वप्न के विषयों को पारमार्थिक दृष्टि से 'स्वभावशून्य' कहा जा सकता है। मिथ्यात्व के इस लक्षण को जाग्रत्‌ अनुभव में आनेवाले विषयों पर भी लागू किया गया है। इसीलिए माध्यमिक दर्शन तथा परवर्ती अद्वैत वेदांत में विशद रूप से जाग्रत अनुभव के विषयों को उनकी नश्वरता के कारण स्वप्न के विषयों की तरह मिथ्या माना गया है।

मिथ्यात्व के इस लक्षण के आधार पर यह भी कहा गया है कि जो तत्व अपने आप में पूर्ण होगा, जिसे अपनी स्थिति के लिए दूसरे की आवश्यकता न होगी, वही तत्व सत्य है। अनुभवगम्य विषय सापेक्ष होते हैं अत: वे पूर्ण सत्य की परिभाषा में नहीं आ सकते। साथ ही, पूर्णता और असीमता पर्यायवाची शब्द हैं। सापेक्षता या द्वैत भावना पूर्णता का विनाश करती है। अत: चरम तत्व नित्य, अनंत और द्वितीयरहित अद्वय तत्व ही हो सकता है। यह अद्वय तत्व चेतन है, क्योंकि चेतन के बिना जड़ की स्थिति, संसार का निर्माण, असंभव है। अत: अध्यात्मवाद में आत्मा को ही परात्पर एक तत्व माना गया है।

यदि आत्मा ही तत्व है तो उसका इस जगत्‌ से कैसा संबंध हो सकता है? अध्यात्मवाद में इसी प्रश्न को लेकर कई अवांतर वाद उत्पन्न हुए हैं। अद्वैत वेदांत में 'माया' को आत्मा और जड़ का चेतन के रूप में प्रकट होती है, अत: संसार मायानिर्मित एवं आत्मा की दृष्टि से असत्‌ कहा जाता है। किंतु आत्मा इस संसार के मूल में है इसलिए यह आत्मा से अलग भी नहीं है। इस दृष्टि से यद्यपि संसार की वस्तुएँ पृथक-पृथक आत्मा का वास्तविक रूप प्रकट नहीं कर पातीं, फिर भी वे किसी हद तक आत्मा का अपूर्ण प्रतीक हैं। ब्रैडले और हीगेल जैसे पाश्चात्य दार्शनिक तत्व के समग्र रूप में स्तर का भेद मानते हैं।

यदि वस्तु आत्मा का अपूर्ण रूप और सापेक्ष सत्ता है तो वस्तु को अपने आप में नहीं जाना जा सकता। चूँकि असत्‌ से सत्‌ की उत्पत्ति संभव नहीं है, अत: संसार के मूल में किसी सत्ता की स्थिति भी आवश्यक है। इन दोनों दृष्टियों को मिलाने पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि यद्यपि वस्तु अपने आपमें क्या है, यह नहीं कहा जा सकता (अनिर्वचनीयतावाद), तथापि वस्तु का मूल सत्य में निहित है। ज्ञान की सीमाओं (कैटेगरीज) के भीतर पड़ने वाली सापेक्ष, अनित्य, दिक्कालावच्छिन्न वस्तुओं का परिशीलन करने वाली प्रज्ञा विषयनिरपेक्ष, दिक्कालातीत तत्व का साक्षात्कार करने में असमर्थ है अत: उस तत्व का आभास मात्र होता है। तत्व का वास्तविक ज्ञान साक्षात्कार के बिना संभव नहीं। और साक्षात्कार ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान की 'त्रिपुटी' से परे होने पर भी संभव है; अत: सत्य के साक्षात्कार का अर्थ है सत्यमय हो जाना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

सं.ग्रं.-(भारतीय) उपनिषद्; ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य; भामती; वेदांतपरिभाषा; खंडन-खंड-खाद्य(श्रीहर्ष); चित्सुखी, विज्ञप्ति-मात्रतासिद्धि; मूल माध्यमिक कारिका, बौद्ध दर्शन और वेदांत (डा. चंद्रधर शर्मा)। (पाश्चात्य); प्लेटो के ग्रंथ : ए क्रिटीक ऑव योर रीजन; कांट, हीगेल के ग्रंथ; अपियरेंस ऐंड सरियलिटी(ब्रैडले); आइडियलिज्म; एक क्रिटिकल सर्वे(ईविंग); कंटेंपरेरी आइडियलिज्म इन अमेरिका(बैरेट); प्लेटोनिक ट्रैडिशन इन ऐंग्लो सैक्सन फिलासफी (मूरहेड)।