महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 146 श्लोक 123-144

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षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 123-144 का हिन्दी अनुवाद

सिंधराज जयद्रथ के उस मस्तक को उन्होंने बाणों द्वारा ऊपर ही ऊपर ढोना आरम्भ किया। इससे अर्जुन के शत्रुओं-को बड़ा दुःख और मित्रों को महान हर्ष हुआ। उस समय पाण्डुपुत्र अर्जुन ने एक के बाद एक करके अनेक बाण मारकर उस मस्तक को कदम्ब के फूल-सा बना दिया। साथ ही वे पूर्वोक्त छः महारथियों से युद्ध भी करते रहे। भारत ! उस समय हमने समन्तपंचक से बाहर जहां वह बाण उस मस्तक को ले गया था, वहां बडे भारी आश्‍चर्य की घटना देखी। आर्य ! इसी समय आपके तेजस्वी सम्बन्धी राजा वृद्धक्षत्र संध्योपासना कर रहे थे। संध्योपासना में बैठे हुए वृद्धक्षत्र के अंग में उस बाण ने सिंधुराज जयद्रथ का वह काले केशों वाला कुण्डलमण्डित मस्तक डाल दिया। शत्रुदमन नरेश ! जयद्रथ का वह सुन्दर कुण्डलों से सुशोभित सिर राजा वृद्धक्षत्र की गोद में उनके बिना देखे ही गिर गया। भरतनन्दन ! जप समाप्त करके जब वृद्धक्षत्र सहसा उठने लगे, तब उनकी गोद से वह मस्तक पृथ्वी पर जा गिरा। शत्रुदमन महाराज ! पुत्र का मस्तक पृथ्वी पर गिरते ही राजा वृद्धक्षत्र के मस्तक के भी सौ टूकडे़ हो गये। तदनन्तर सारी सेनाएं भारी आश्‍चर्य में पड़ गयी और सब लोग श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करने लगे। राजन ! भरतश्रेष्ठ ! किरीटधारी अर्जुन के द्वारा सिंधुराज जयद्रथ के मारे जाने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने रचे हुए अन्धकार को समेट लिया। नृपश्रेष्ठ ! महीपाल ! पीछे सेवकों सहित आपके पुत्रों को यह ज्ञात हुआ कि इस अन्धकार के रूप मे भगवान श्रीकृष्ण द्वारा फैलायी हुई माया थी। राजन ! इस प्रकार अमित तेजस्वी अर्जुन ने आपकी आठ अक्षौहिणी सेनाओें के संहार की पूर्ति करके आपके दामाद सिंधुराज जयद्रथ को मार डाला। नरेश्रवर ! जयद्रथ को मारा गया देख आपके पुत्र दुःख से आंसू बहाने लगे और अपनी विजय से निराश हो गये। राजन ! कुन्तीकुमार द्वारा जयद्रथ के मारे जाने पर भगवान श्रीकृष्ण तथा शत्रुतापन महाबाहु अर्जुन ने अपना-अपना शंख बजाया। भारत ! तत्‍पश्‍चात भीमसेन, वृष्णिवंश के सिंह, युधामन्यु और पराक्रमी उत्मौजा ने पृथक्-पृथक् शंख बजाये। उस महान शंखनाद को सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर को यह निश्‍चय हो गया कि महात्मा अर्जुन ने सिंधुराज जयद्रथ को मार डाला। तदनन्तर युधिष्ठिर भी विजय के बाजे बजाकर अपने योद्धाओं का हर्ष बढाने लगे। वे युद्ध की इच्छा से संग्रामभूमि में द्रोणाचार्य के सामने डटे रहे। राजन ! तदनन्तर सुर्यास्त होते समय द्रोणाचार्य का सोमकों के साथ रोमांचकारी संग्राम छिड़ गया। नरेश्‍वर ! सिंधुराज के मारे जानेपर समस्त सोमक महारथी द्रोणाचार्य के वध की इच्छा से प्रयत्नपूर्वक युद्ध करने लगे। पाण्डव सिंधुराज को मारकर विजय पा चुके थे। अतः वे विजयोल्लास से उन्मत हो जहां-तहां से आकर द्रोणाचार्य के साथ युद्ध करने लगे। महाबाहु अर्जुन ने भी सिंधुराज को मारकर आपके श्रेष्ठ रथी योद्धाओं के साथ युद्ध छेड़ दिया। जैसे देवराज इन्द्र देवशत्रुओं का संहार करते हैं तथा जैसे तिमिरारि सूर्य उदित होकर अन्धकार का विनाश कर डालते हैं, उसी प्रकार किरीटधारी वीर अर्जुन ने अपनी पहली प्रतिज्ञा पूरी करके सब ओर से आपकी सेना का संहार आरम्भ कर दिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथपर्व में जयद्रथवध विषयक एक सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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