महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 152 श्लोक 1-16

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द्विपञ्चाशदधिकशततम (152) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: द्विपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-161 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन और कर्ण की बातचीत तथा पुनः युद्ध का आरम्भ संजय उवाच

संजय कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर द्रोणाचार्य से इस प्रकार प्रेरित हो अमर्ष में भरे हुए राजा दुर्योधन ने मन-ही-मन युद्ध करने का ही निश्‍चय किया। उस समय आपके पुत्र दुर्योधन ने कर्ण से इस प्रकार कहा- ’कर्ण ! देखो, श्रीकृष्ण सहित पाण्डुपुत्र अर्जुन ने आचार्य द्वारा निर्मित व्यूह को, जिसका भेदन करना देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन था, भेदकर तुम्हारे और महात्मा द्रोण के युद्ध में तत्पर रहते हुए भी मुख्य-मुख्य योद्धाओं के देखते-देखते सिंधुराज जयद्रथ को मार गिराया है। ‘ राधानन्दन ! देखो, जैसे सिंह दूसरे वन्य पशुओं संहार कर डालता हैं, उसी प्रकार एकमात्र कुन्तीकुमार अर्जुन द्वारा मारे गये ये भूमण्डल के श्रेष्ठ भूपाल युद्धभूमि में पडे हैं। ’मेरे और महात्मा द्रोण के परिश्रमपूर्वक युद्ध करते रहने पर भी इन्द्रपुत्र अर्जुन ने मेरी सेना को अल्पमात्रा में ही जीवित छोडा है (अधिकांश सेना को तो मार ही डाला है)। ’यदि इस युद्ध में आचार्य द्रोण अर्जुन को रोकने की पूरी चेष्टा करते तो प्रयत्न करनेपर भी वे समरांगण में उस दुर्मेद्य व्यूह को कैसे तोड सकते थे ? सिंधुराज को मारकर अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा के भार से मुक्त हो गये। ’राधाकुमार ! संग्रामभूमि में पार्थ के मारे और पृथ्वी पर गिराये हुए इन बहुसंख्यक भूपतियों को देखो, ये सब-के-सब देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी थे। ’वीर ! यदि बलवान् द्रोणाचार्य पूरा प्रयत्न करके उन्हें व्यूह में नहीं घुसने देना चाहते तो वे उस दुर्मेघ व्यूहको कैसे तोड सकते थे ? ’शत्रुसूदन ! किंतु अर्जुन तो महात्मा आचार्य द्रोण को सदा ही परम प्रिय हैं। इसीलिये उन्होंने युद्ध किये बिना ही उन्हें व्यूह में घुसने का मार्ग दे दिया। ’शत्रुओं को संताय देने वाले द्रोणाचार्य ने सिंधुराज को अभय-दान देकर भी किरीटधारी अर्जुन को व्यूह में घुसने का मार्ग दे दिया। देखो, मुझमें कितनी गुणहीनता है। ’यदि उन्होंने पहले ही सिंधुराज को घर जाने की आज्ञा दे दी होती तो वह इतना बडा जनसंहार नहीं होता। ’सखे ! जयद्रथ अपनी जीवनरक्षा के लिये घर की ओर पधार रहे थे, परंतु मुझ अधमने ही द्रोणाचार्य से अभय पाकर उन्हें रोक लिया।’मैं युद्ध में सिंधुराज की रक्षा करूंगा। अर्जुन उसे नहीं पा सकेंगे’ ऐसा कहकर इस ब्राहमण ने मेरी सेना का संहार कराने के लिये सिंधुराज को रोक लिया ।। ’युद्ध में प्रयत्न करने पर भी मुझ भाग्यहीन की सारी सेनाएं नष्ट हो गयीं और राजा जयद्रथ भी मारे डाले गये ।। ’कर्ण ! इन सैकडों-हजारों श्रेष्ठ योद्धाओं को देखो, ये सब-के-सब अर्जुन के नाम से अगणित बाणों द्वारा यमलोक पहुंचाये गये हैं। ’हम बहुसंख्यक योद्धा देखते ही रह गये और युद्धस्थल में एकमात्र रथ की सहायता से अर्जुन ने मेरे इन सहस्त्रों योद्धाओं तथा सिंधुराज जयद्रथ को भी मार डाला। यह कैसे सम्भव हुआ ।। ’आज युद्ध में हम दुरात्माओं के देखते-देखते मेरे चित्र-सेन आदि भाई भीमसेन से भिडकर नष्ट हो गये’।

कर्ण बोला- भाई ! तुम आचार्य की निन्दा न करो। वह ब्राहामण तो अपने बल, शक्ति और उत्साह के अनुसार प्राणों का भी मोह छोडकर युद्ध करता ही है। यदि श्वेतवाहन अर्जुन आचार्य द्रोण का उल्लघंन करके सेना में घुस गये तो इसमें किसी प्रकार आचार्य का कोई सुक्ष्म से भी सुक्ष्म दोष नहीं है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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