महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-9

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पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

त्रिवर्ग का निरुपण तथा कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-9 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिय! विद्या, वार्ता, सेवा, शिल्पकला और अभिनय-कला- ये मनुष्यों के जीवन निर्वाह के लिये पाँच वृत्तियाँ बनायी गयी हैं। देवि! सभी मनुष्यों के लिये विद्या का योग पहले ही निश्चित कर दिया जाता है। विद्या से लोग कर्तव्य और अकर्तव्य को जानते हैं, अन्यथा नहीं। विद्या से ज्ञान बढ़ता है, ज्ञान से तत्व का दर्शन होता है और तत्व का दर्शन कर लेने के पश्चात् मनुष्य विनीतचित्त होकर समस्त पुरूषार्थों का भाजन हो जाता है। विद्या से विनीत हुआ पुरूष संसार में शुभ जीवन बिता सकता है, अतः अपने आपको पहले विद्या द्वारा पुरूषार्थ को भाजन बनाकर क्रोधविजयी एवं जितेन्द्रिय पुरूष सम्पूर्ण भूतों के आत्मा-परमात्मा का चिन्तन करे। परमात्मा का चिन्तन करके मनुष्य सत्पुरूषों के लिये भी पूजनीय बन जाता है। जीवात्मा पहले कुल परम्परा से चले आते हुए सदाचार का ही आश्रय ले। देवि! यदि विद्या से अपनी जीविका चलाने की इच्छा हो तो शुश्रूषा आदि गुणों से सम्पन्न हो किसी गुरू से राजीविद्या अथवा लोकविद्या की शिक्षा ग्रहण करे और उसे ग्रन्थ एवं अर्थ के अभ्यास द्वारा प्रयत्नपूर्वक दृढ़ करे। देवि! ऐसा करने से मनुष्य विद्या का फल पा सकता है, अन्यथा नहीं। न्याय से ही विद्याजनित फलों को पाने की इच्छा करे। वहाँ अधर्म को सर्वथा त्याग दे।। यदि वार्तावृत्ति के द्वारा जीविका चलाने की इच्छा हो तो जहाँ सींचने के लिये जल की व्यवस्था हो, ऐसे खेत में तदनुरूप् कार्य विधिपूर्वक करे । अथवा यथासमय उस द्वेष की आवश्यकता के अनुसार वस्तु, उसे मूल्य, व्यय, लाभ और परिश्रम आदि का भली भाँति विचार करके व्यापार करे। देशवासी पुरूष को पषुओं का पालन-पोषण भी अवश्य करना चाहिये। अनेक प्रकार के बहुसंख्यक पशु भी उसके लिये अर्थप्राप्ति के साधक हो सकते हैं। जो कोई बुद्धिमान् मनुष्य सेवा द्वारा जीवननिर्वाह करना चाहे तो वह मन को संयम में रखकर श्रवण करने योग्य मीठे वचनों का प्रयोग करे। जैसे-जैसे सेव्य स्वामी संतुष्ट रहे, वैसे ही वैसे उसे संतोष दिलावे। सेवक के गुणों से सम्पन्न हो अपने आपको स्वामी के आश्रित रखे। स्वामी का कभी अप्रिय न करे, यही संक्षेप से सेवा का स्वरूप् है। उसके साथ वियोग होने से पहले अपने लिये दूसरी कोई गति न देखे। शिल्पकर्म अथवा कारीगरी और नाट्यकर्म प्रायः निम्न जाति के लोगों में चलते हैं। शिल्प और नाट्य में भी यथायोग्य न्यायानुसार कार्य का वेतन लेना चाहिये। सरल व्यवहार वाले सभी मनुष्यों से सरलता से ही वेतन लेना चाहिये। कुटिलता से वेतन लेने वाले के लिये वह पाप का कारण बनता है। जीविका-साधन के जितने उपाय हैं, उन सबके आरम्भों पर पहले न्यायपूर्वक विचार करे। अपनी शक्ति, उपाय, देश, काल, कारण, प्रवास, प्रक्षेप और फलोदय आदि के विषय में युक्तिपूर्वक विचार एवं चिन्तन करके दैव की अनुकूलता देखकर जिसमें अपना हित निहित दिखायी दे, उसी उपाय का आलम्बन करे। इस प्रकार अपने लिये जीविकावृत्ति चुनकर उसका सदा ही पालन करे और ऐसा प्रयत्न करे, जिससे वह दैव और मानुष विघ्नों से पुनः उसे छोड़ न बैठे। रक्षा, वृद्धि और उपभोग करते हुए उस वृत्ति को पाकर नष्ट न करे। यदि रक्षा आदि की चिन्ता छोड़कर केवल उपभोग ही किया जाय तो पर्वत-जैसी धनराषि भी नष्ट हो जाती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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