महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 304-324

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द्वितीय (2) अध्‍याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 304-324 का हिन्दी अनुवाद

वह पतियों को अश्वत्थामा से इसका बदला लेने के लिये उत्तेजित करती हुई आमरण अनशन का संकल्प लेकर अन्न- जल छोड़कर बैठ गयी। द्रौपदी के कहने से भयंकर पराक्रमी महाबली भीमसेन उसका अप्रिय करने की इच्छा से हाथ में गदा ले अत्यन्त क्रोध में भयंकर गुरू पुत्र अश्वत्थामा के पीछे दौड़े। तब भीमसेन के भय से घबराकर दैव की प्रेरणा से पाण्डवों के विनाश के लिये अश्वत्थामा ने रोषपूर्वक दिव्यास्त्र का प्रयोग किया। किन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के रोष पूर्ण वचन को शान्त करते हुए कहा-‘मैवम्’-‘पाण्डवों का विनाश न हो।’ साथ ही अर्जुन ने अपने दिव्यास्त्र द्वारा उसके अस्त्र को शान्त कर दिया। उस समय पापात्मा द्रोण पुत्र के द्रोहपूर्ण विचार को देखकर द्वैपायन व्यास एवं श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को और अश्वत्थामा ने उन्हें शाप दिया। इस प्रकार दोनों ओर से एक दूसरे को शाप प्रदान किया गया। महारथी अश्वत्थामा से मणि छीन कर विजय से सुशोभित होने वाले पाण्डवों ने प्रसन्नतापूर्वक द्रौपदी को दे दी। इन सब वृत्तान्तों से युक्त सौप्तिक पर्व दसवाँ कहा गया है। महात्मा व्यास ने इसमें अठारह अध्याय कहे हैं। इसी प्रकार उन ब्रह्मवादी मुनि ने इस पर्व में श्लोकों की संख्या आठ सौ सत्तर (870) बतायी है। उत्तम तेजस्वी व्यास जी ने इस पर्व में सौप्तिक और ऐषीक दोनों की कथाएँ सम्बद्ध कर दी हैं। इसके बाद विद्वानों ने स्त्रीपर्व कहा हैं, जो करूण- रस की धारा बहाने वाला है। प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्र ने पुत्र शोक से संतप्त हो भीमसेन के प्रति द्रोह-बुद्धि कर ली और श्रीकृष्ण द्वारा अपने समीप लायी हुई लोहे की मजबूत प्रतिमा को भीमसेन समझकर भुजाओं में भर लिया तथा उसे दबाकर टूक-टूक कर डाला। उस समय पुत्र शोक से पीड़ित बुद्धिमान राजा धृतराष्‍ट्र को विदुरजी ने मोक्ष का साक्षात्कार कराने वाली युक्तियों तथा विवेकपूर्ण बुद्धि के द्वारा संसार की दुःखरूपता का प्रतिपादन करते हुए भली भाँति समझा बुझाकर शान्त किया।

इसी पर्व में शोकाकुल धृतराष्ट्र का अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ कौरवों के युद्ध स्थान में जाने का वर्णन है। वहीं वीर पत्नियों के अत्यन्त करूणापूर्ण विलाप का कथन है। वहीं गान्धारी और धृतराष्ट्र के क्रोधावेश तथा मूर्च्छित होने का उल्लेख है। उस समय उन क्षत्राणियों ने युद्ध में पीठ न दिखाने वाले अपने शूरवीर पुत्रों, भाईयों और पिताओं को रणभूमि में मरा हुआ देखा। पुत्रों और पौत्रों के वध से पीड़ित गान्धारी के पास आकर भगवान श्रीकृष्ण ने उनके क्रोध को शान्त किया। इस प्रसंग का भी इसी पर्व में वर्णन किया गया है। वहीं यह भी कहा गया है कि परम बद्धिमान और सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने वहाँ मारे गये समस्त राजाओं के शरीरों का शास्त्र विधि से दाह-संस्कार किया और कराया। तदनन्तर राजाओं को जलांजलिदान के प्रसंग में उन सबके लिये तर्पण का आरम्भ होते ही कुन्ती द्वारा गुप्त रूप से उत्पन्न हुए अपने पुत्र कर्ण का गूढ़ वृत्तान्त प्रकट किया गया, यह प्रसंग आता है। महर्षि व्यास ने ये सब बातें स्त्रीपर्व में कही हैं। शोक और विकलता का संचार करने वाला यह ग्यारहवाँ पर्व श्रेष्ठ पुरुषों के चित्त को भी विह्वल करके उनके नेत्रों से आँसू की धारा प्रवाहित करा देता है। इस पर्व में सत्ताईस अध्याय कहे गये हैं। इसके श्लोकों की संख्या सात सौ पचहत्तर (775) कही गयी है। इस प्रकार परम बुद्धिमान व्यास जी ने महाभारत का यह उपाख्यान कहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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