महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-23
पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
उमा-महेश्वर-संवाद कितने ही महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन
आदिकाल से ही यह संसार कर्म से गुँथा हुआ है कर्मों के परिणाम के विषय में ये बातें संक्षेप से बतायी गयी हैं। कर्मसंचय के विषय में जो बात मैंने अब तक नहीं कही हो, उसे भी तुम्हें अपनी बुद्धि द्वारा तर्क- ऊहापोह करके जान लेना चाहिये। तुम्हें सुनने की इच्छा थी, इसलिये मैंने ये सारी बातें बतायीं। अब तुम और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने पूछा- भगवन्! भगनेत्रनाशन! आपका मत है कि मनुष्यों की जो भली-बुरी अवस्था है, वह सब उनकी अपनी ही करनी का फल है। आपके इस मत को मैंने अच्छी तरह सुना, परंतु लोक में यह देखा जाता है कि लोग समस्त शुभाशुभ कर्मफल को ग्रहजनित मानकर प्रायः उन ग्रहनक्षत्रों की ही आराधना करते रहते हैं। क्या उनकी यह मान्यता ठीक है? देव! यही मेरा संशय है। आप मेरे इस संदेह का निवारण कीजिये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुमने उचित संदेह उपस्थित किया है। इस विषय में जो सिद्धान्त मत है, उसे सुनो। महाभागे! ग्रह और नक्षत्र मनुष्यों के शुभ और अशुभ की सूचनामात्र देने वाले हैं। वे स्वयं कोई काम नहीं करते हैं। प्रजा के हित के लिये ज्यौतिषचक्र (ग्रह-नक्षत्र मण्डल)- के द्वारा भूत और भविष्य के शुभाशुभ फल का बोध कराया जाता है। किंतु वहाँ शुभ कर्मफल की सूचना (उत्तम) शुभ ग्रहों द्वारा प्राप्त होती है और दुष्कर्म के फल की सूचना अशुभ ग्रहों द्वारा केवल ग्रह और नक्षत्र ही शुभाशुभ कर्मफल को उपस्थित नहीं करते हैं। सारा अपना ही किया हुआ कर्म शुभाशुभ फल का उत्पादक होता है। ग्रहों ने कुछ किया है- यह कथन लोगों का प्रवादमात्र है। उमा ने पूछा- भगवन्! जीव नाना प्रकार के शुभाशुभ कर्म करके जब दूसरा जन्म धारण करता है, तब दोनों में से पहले किसका फल भोगता है, शुभ का या अशुभ का? देव! यह मेरा संशय है। आप इसे मिटा दीजिये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुम्हारा संदेह उचित ही है, अब मैं तुम्हें इसका यथार्थ उत्तर देता हूँ। कुछ लोगों का कहना है कि पहले अशुभ कर्म का फल मिलता है, दूसरे कहते हैं कि पहले शुभ कर्म काफल प्राप्त होता है। परंतु ये दोनों ही बातें मिथ्या कही गयी हैं। सच्ची बात क्या है? यह मैं तुम्हें बता रहा हूँ। इस पृथ्वी पर मनुष्य क्रमशः दोनों प्रकार के फल भोगते देखे जाते हैं। कभी धन की वृद्धि होती है कभी हानि, कभी सुख मिलता है कभी दुःख, कभी निर्भयता रहती है और कभी भय प्राप्त होता है। इस प्रकार सभी फल क्रमशः भोगने पड़ते हैं। कभी धनाढ्य लोग दुःख का अनुभव करते हैं और कभी दरिद्र भी सुख भोगते हैं। इस प्रकार एक ही साथ लोग शुभ और अशुभ का भोग करते देखे जाते हें। सारा जगत् इस बात का साक्षी है। प्रिये! किंतु नरक और स्वर्गलोक में ऐसी स्थिति नहीं है। नरक में सदा दुःख ही दुःख है और स्वर्ग में सदा सुख ही सुख। शुभे! वहाँ भी शुभ या अशुभ में से जो बहुत अधिक होता है, उसका भोग पहले और जो बहुत कम होता है, उसका भोग पीछे होता है। ये सब बातें मैंने तुम्हें बता दीं, अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने पूछा- भगवन्! इस लोक में प्राणी किस कारण से मर जाते हैं? जन्म ले-लेकर वे यहीं बने क्यों नहीं रहते हैं? यह मुझे बताने की कृपा करें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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