महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 2

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अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 2 का हिन्दी अनुवाद

वैश्यों में वही सर्वमान्य है, जो धन धान्य में बढ़कर हो, केवल शूद्रों में ही जन्म काल को ध्यान में रखकर जो अवस्था में बड़ा हो, उसको पूजनीय माना जाताहै। श्रीकृष्ण के परम पूजनीय होने में दोनों ही कारण विद्यमान हैं। इनमें वेद वेदांगों का ज्ञान तो है ही, बल भ्ीा सबसे अधिक हैं। श्रीकृष्ण के सिवा संसार के मनुष्यों में दूसरा कौन सबसे बढ़कर है? दान, दक्षता, शास्त्रज्ञान, शौर्य, लज्जा, कीर्ति, उत्तम बुद्धि, विनय, श्री, धृति, तुष्टि और पुष्टि- ये सभी सद्गुण भगवान श्रीकृष्ण में नित्य विद्यमान हैं। जो अर्ध्य पाने के सर्वथा योग्य और पूजनीय है, उन सकल गुण सम्पन्न, श्रेष्ठ, पिता और गुरु भगवान श्रीकृष्ण की हम लोगों ने पूजा की है, अत: सब राजा लोग इसके लिये हमें क्षमा करें। श्रीकृष्ण हमारे ऋत्विक, गुरु, आचार्य, स्नातक, राजा और प्रिय मित्र सब कुछ हैं। इसलिये हमने इनकी अग्रपूजा की है। भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। यह सारा चराचर विव इन्हीं के लिये प्रकट हुआ है। ये ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता तथा सम्पूर्ण भूतों से परे हैं, अत: भगवान अच्युत ही सबसे बढ़कर पूजनीय हैं। महतत्त्व, अहंकार, मनसहित ग्यारह इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज- ये चार प्रकार के प्राणी भगवान श्रीकृष्ण में ही प्रतिष्ठित हैं। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रह, दिशा और विदिशा सब उन्हीं में स्थित हैं। जैसे वेदों में अग्निहोत्र कर्म, छन्दों में गायत्री, मनुष्यों में राजा, नदियों (जलाशयों) में समुद्र, नक्षत्रों में चन्द्रमा, तेजोमय पदार्थो में सूर्य, पर्वतों में मेरु और पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार देवलोक सहित सम्पूर्ण लोकों में ऊपर-नीचे, दाँयें-बाँयें, जितने भी जगत के आश्रय हैं, उन सब में भगवान श्रीकृष्ण ही श्रेष्ठ हैं। (भगवान नारायण की महिमा और उनके द्वारा मधु-कैटभ का वध) वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर भीष्मजी का वह समयोचित वचन सुनकर कौरवनन्दन बुद्धिमान युधिष्ठिर ने उनसे इस प्रकार कहा। युधिष्ठिर बोले- पितामह! मैं इन भगवान श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। आप उन्हें कृपापूर्वक बतावें। पितामह! भगवान के अवतारों और चरित्रों का क्रमश: वर्णन कीजिये। साथ ही मुझे यह भी बताइये कि श्रीकृष्ण का शील स्वभाव कैसा है? वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! उस समय युधिष्ठिर के इस प्रकार अनुरोध करने पर भीष्म ने राजाओं के उस समुदाय में देवराज इन्द्र के समान सुशोभित होने वाले भगवान वासुदेव के सामने ही शत्रुहन्ता भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर से भगवान श्रीकृष्ण के अलौकिक कर्मों का, जिन्हें दूसरा कोई कदापि नहीं कर सकता, वर्णन किया। धर्मराज के समीप बैठे हुए सम्पूर्ण नरेश उनकी यह बात सुन रहे थे। राजन्! बुद्धिमानों में श्रेष्ठ भीमकर्मा भीष्म ने शत्रुदमन चेदिराज शिशुपाल को सान्त्वनापूर्ण शब्दों में ही समझाकर कुरुराज युधिष्ठिर से पुन: इस प्रकार कहना आरम्भ किया। भीष्म बोले- राजा युधिष्ठिर! पुरुषोततम भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य कर्मों की गति बड़ी गहन है। उन्होंने पूर्व काल में और इस समय जो भी महान कर्म किये हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो। ये सर्वशक्तिमान् भगवान अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त स्वरूप धारण करके स्थित हैं। पूर्वकाल में ये भगवान श्रीकृष्ण ही नारायण रूप में स्थित थे। ये ही स्वयम्भू एवं सम्पूर्ण जगत के प्रपितामह हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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