महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-14

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एकोनषष्टितम (59) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकोनषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

भगवन् श्रीकृष्ण का द्वारका में जाकर रैवतक पर्वत पर महोत्सव में सम्मिलित होना और सब से मिलना

जनमेजय ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! महायशस्वी महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तंक को वरदान देने के पश्चात क्या किया? वैशम्पायनजी ने कहा- उत्तंक को वर देकर भगवान श्रीकृष्ण महान् वेगशाली शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा सात्यकि (और सुभद्रा)-के साथ पुन: द्वारका की ओर ही चल दिये। मार्ग में अनेकानेक सरोवरों, सरिताओं, वनों और पर्वतों को लाँघकर वे परम रमणीय द्वारका नगरी में जा पहुँचे। महाराज! उस समय वहाँ रैवतक पर्वत पर कोई बड़ा भारी उत्सव मनाया जा रहा था। सात्यकि को साथ लिये कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण भी उस समय उस महोत्सव में पधारे। पुरुषवर! वह पर्वत नाना प्रकार के विचित्र रत्नमय ढेरों द्वारा सजाया गया था, उस समय उसकी अद्भुत शोभा हो रही थी। सोने की सुन्दर मालाओं, भाँति-भाँति के पुष्पों, वस्त्रों और कल्पवृक्षों से घिरे हुए महान् शैल की अपूर्व शोभा हो रही थी। वृक्ष के आकार में सजाये हुए सोने के दीप उस स्थान की शोभा को और भी उद्दीप्त कर रहे थे। वहाँ की गुफाओं और झरनों के स्थानों में दिन के समान प्रकाश हो रहा था। चारों ओर विचित्र पताकाएँ फहरा रही थीं, उनमें बँधी हुई घण्टियाँ बज रही थीं और स्त्रियों तथा पुरुषों के सुमधुर शब्द वहाँ व्याप्त हो रहे थे। इससे वह पर्वत संगीतमय सा प्रतीत हो रहा था। जैसे मुनिगणों से मेरु शोभा होती है, उसी प्रकार द्वारकावासियों के समागम से वह पर्वत अत्यन्त दर्शनीय हो गया था। भरतनन्दन! उस पर्वतराज के शिखर पर हर्षोन्मत्त होकर गाते हुए स्त्री-पुरुषों का सुमधुर शब्द मानो स्वर्गलोकतक व्याप्त हो रहा था। कुछ लोग क्रीडा आदि में आसक्त होकर दूसरे कार्यों की ओर ध्यान नहीं देते थे, कितने ही हर्ष से मतवाले हो रहे थे, कुछ लोग कूदते-फाँदते, उच्च स्वर से कोलाहल करते और किलकारियाँ भरते थे। इन सभी शब्दों से गूँजता हुआ पर्वत परम मनोहर जान पड़ता था। उस महान् पर्वत पर होने वाला वह महोत्सव परम मंगलमय प्रतीत होता था। वहाँ दूकानें और बाजार लगी थीं। भक्ष्य-भोज्य पदार्थ यथेष्ठ रूप से प्राप्त होते थे। सब ओर घूमने-फिरने की सुविधा थी। वस्त्रों और मालाओं के ढेर लगे थे। वीणा, वेणु और मृदंग बज रहे थे। इन सबके कारण वहाँ की रमणीयता बहुत बढ़ गयी थी। वहाँ दीनों, अन्धों और अनाथों के लिये निरन्तर सुरा-मैरेयमिश्रित भक्ष्य-भोज्य पदार्थ दिये जाते थे। वीरवर! उस पर्वत पर पुण्यानुष्ठान के लिये बहुत से गृह और आश्रम बने थे, जिनमें पुण्यात्मा पुरुष निवास करते थे। रैवतक पर्वत के उस महोत्सव में कृष्णिवंशी वीरों का विहार-स्थल बना हुआ था। वह गिरि प्रदेश बहुसंख्यक गृहों से व्याप्त होने के कारण देव लोक के समान शोभा पाता था।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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