महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 180 श्लोक 1-19

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:१४, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अशीत्यधिकशततम (180) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: अशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

घटोत्कच के वध से पाण्डवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता और उसका कारण

संजय कहते हैं- राजन्! जैसे पर्वत ढह गया हो, उसी प्रकार हिडिम्बाकुमार घटोत्कच को मारा गया देख समस्त पाण्डवों के नेत्रों में शोक के आँसू भर आये। परंतु वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण बड़े हर्ष में मग्न होकर सिंहनाद करने लगे। उन्होंने अर्जुन को छाती से लगा लिया। वे बड़े जोर से गर्जना करके घोड़ों की रास रोककर हवा के हिलाये हुए वृक्ष के समान हर्ष से झूमकर नाचने लगे। तत्पश्चात् पुनः अर्जुन को हृदय से लगाकर बारंबार उनकी पीठ ठोंक कर रथ के पिछले भाग में बैठे हुए बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण फिर जोर-जोर से गर्जना करने लगे। राजन्! भगवान श्रीकृष्ण के मन में अधिक प्रसन्नता हुई जानकर महाबली अर्जुन कुछ अप्रसन्न से होकर बोले-। ‘मधुसूदन! हिडिम्बाकुमार घटोत्कच के वध से आज हमारे लिये तो शोक का अवसर प्राप्त हुआ है, परंतु आपको यह बेमौके अधिक हर्ष हो रहा है। ‘घटोत्कच को मारा गया देख हमारी सेनाएँ यहाँ युद्ध से विमुख होकर भागी जा रही हैं। हिडिम्बाकुमार के धराशायी होने से हम लोग भी अत्यन्त उद्विग्न हो उठे हैं। ‘परंतु जनार्दन! आपको जो इतनी खुशी हो रही है उसका कोई छोटा-मोटा कारण न होगा। वही मैं आपसे पूछता हूँ। सत्यवक्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो! आप इसका मुझे यथार्थ कारण बताइये। ‘शत्रुदमन! यदि कोई गोपनीय बात न हो तो मुझे अवश्य बतावें। मधुसूदन! आपके इस हर्ष प्रदर्शन से आज हमारा धैर्य छूटा जा रहा है, अतः आप इसका कारण अवश्य बतावें। ‘जनार्दन! जैसे समुद्र का सूखना और मेरू पर्वत का विचलित होना आश्चर्य की बात है, उसी प्रकार आज मैं आपे इस हर्ष प्रकाशनरूपी कर्म को आश्चर्यजनक मानता हूँ’।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- धनंजय! आज वास्तव में मुझे वह अत्यन्त हर्ष का अवसर प्राप्त हुआ है, इसका क्या कारण है, यह तुम मुझसे सुनो। मेरे मन को तत्काल अत्यन्त प्रसन्नता प्रदान करने वाला वह उत्तम कारण इस प्रकार है। महातेजस्वी धनंजय! इन्द्र की दी हुई शक्ति को घटोत्कच के द्वारा कर्ण के हाथ से दूर कराकर अब तुम युद्ध में कर्ण को शीघ्र मरा हुआ ही समझो।इस संसार में कौन ऐसा पुरूष है, जो युद्धस्थल में कार्तिकेय के समान शक्तिशाली कर्ण के सामने खड़ा हो सके। सौभाग्य की बात है कि कर्ण का दिव्य कवच उतर गया, सौभाग्य से ही उसके कुण्डल छीने गये तथा सौभाग्य से ही उसकी वह अमोषशक्ति घटोत्कच पर गिरकर उसके हाथ से निकल गयी। यदि कर्ण कवच और कुण्डलों से सम्पन्न होता तो वह अकेला ही रणभूमि में देवताओं सहित तीनों लोकों को जीत सकता था। उस अवस्था में इन्द्र, कुबेर, जलेश्वर वरूण अथवा यमराज भी रणभूमि में कर्ण का सामना नहीं कर सकते थे।। तुम गाण्डीव उठाकर और मैं सुदर्शन चक्र लेकर दोनों एक साथ जाते तो भी समरागंण में कवच-कुण्डलों से युक्त नरश्रेष्ठ कर्ण को नहीं जीत सकते थे। तुम्हारे हित के लिये इन्द्र ने शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले कर्ण के दोनों कुण्डल माया से हर लिये और उसे कवच से भी वन्चित कर दिया। कर्ण ने कवच तथा उन निर्मल कुण्डलों को स्वयं ही अपने शरीर से कुतरकर इन्द्र को दे दिया था, इसीलिये उसका नाम वैकर्तन हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।