महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 349 श्लोक 17-37

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एकोनपञ्चाशदधिकत्रिशततम (349) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपञ्चाशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 17-37 का हिन्दी अनुवाद

‘जब सातवें कल्प के आरम्भ में सातवीं बार ब्रह्माजी के कमल से जन्म ग्रहण करने का अवसर आया, तब शुभ और अशुभ से रहित अमित तेजसवी महायोगी भगवान नारायण ने सबसे पहले अपने नाभिकमल से ब्रह्माजी को उत्पन्न किया। जब ब्रह्माजी प्रकट हो गये, तब उनसे भगवान ने यह बात कही-। ‘ब्रह्मन् ! तुम मेरी नाभि से प्रजावर्ग की सुष्टि करने के लिये उत्पन्न हुए हो और इस कार्य में समर्थ हो; अतः जड़-चेतन सहित नाना प्रकार की प्रजाओं की सृष्अि करो’। ‘भगवान के इस प्रकार आदेश होने पर ब्रह्माजी का मन चिन्ता से व्यकुल हो उठा। वे सुष्टिकार्य से विमुख हो वरदायक देवता सर्वेश्वर श्रीहरि को प्रणाम करके इस प्रकार बोले-। ‘देवेश्वर ! मुझमें प्रजा की सृष्टि करने की क्या शक्ति है ? आपको नमस्कार है। देव ! मैं सुष्टि विषयक बुद्धि से सर्वथा रहित हूँ- यह जानकर अब आपको जो उचित जान पड़े, वह कीजिये’। ‘ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ देवेश्वर भगवान विष्णु ने अदृश्य होकर बुद्धि का चिन्तन किया। ‘उनके चिन्तन करते ही मूर्तिमती बुद्धि उन सामथ्र्यशाली श्रीहरि की सेवा में उपस्थित हो गयी। तदनन्तर जिनपर दूसरो का वश नहीं चलता, उन भगवान नारायण ने स्वयं ही उस बुद्धि को उस समय यागशक्ति से सम्पन्न कर दिया। ‘अविनाशी प्रभु नारायणदेव ने ऐश्वर्ययोग में स्थित हुई उस सती-साध्वी प्रगतिशील बुद्धि से कहा-।

‘तुम संसार की सृष्टिरूप अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये ब्रह्माजी के भीतर प्रवेश करो।’ ईश्वर का यह आदेश पाकर बुद्धि शीघ्र ही ब्रह्माजी में प्रवेश कर गयी। ‘जब ब्रह्माजी सृष्टि विषयकबुद्धि से संयुक्त हो गये, तब श्रीहरि ने पुनः उनकी ओर स्नेपूर्ण दृष्टि से देखा और फिर इस प्रकार कहा- ‘अब तुम इन नाना प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करो’। ‘तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर उन्होनेश्रीहरि की आज्ञा शिरोधार्य की। इस प्रकार उन्हें सृष्टि का आदेश देकर भगवान वहीं अन्तर्धान हो गये। ‘तदनन्तर कुछ काल के बाद भगवान के मन में फिर दूसरा विचार उठा। वे सोचने लगे, परमेष्ठी ब्रह्मा ने इन समसत प्रजाओें की सृष्टि तो कर दी। ‘किंतु दैत्य, दानव, गन्धर्व और राक्षसों से व्याप्त हुई यह तपस्विनी पृथ्वी भार से पीडि़त हो गयी है।। ‘इस पृथ्वी पर बहुत से ऐसे बलवान् दैत्य, दानव और राक्षस होंगे, जो तपस्या में प्रवृत्त हो उत्तमोत्तम वर प्राप्त करेंगे। ‘वरदान से घमंड में आकर वे समस्त दानव निश्चय ही देव समूहों तथा तपोधन ऋषियों को बाधा पहुँचायेंगे। ‘अतः अब मुण्े पृथ्वी पर क्रमशः नाना अवतार धारण करके इसके भार को उतारना उचित होगा। ‘पापियों को दण्ड देने और साधु पुरुषों पर अनुग्रह करने से यह तपस्विनी सत्य स्वरूपा पृथ्वी बल से टिकी रह सकेगी। ‘मैं पाताल में शेषनाग के रूप से रकहर इस पृथ्वी को धारण करता हूँ और मेरे द्वारा धारित होकर यह सम्पूर्ण चराचर जगत् को धारण करती है। ‘इसलिये मैं अवतार लेकर इस पृथ्वी की रक्षा अवश्य करूँगा। ऐसा सोच -विचार कर भगवान मधुसूदन ने जगत् के लिये अवतार ग्रहण करने के निमित्त अपने अनेक रूपों की सृष्टि की अर्थात् वाराह, नरसिंह, वामन एवं मनुष्यरूपों का स्मरण किया। उन्होंने यह निश्चय किया था कि मुण्े इन अवतारों द्वारा उद्दण्ड दैत्यों का वध करना है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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