जैन धर्म

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लेख सूचना
जैन धर्म
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 46-51
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक प्रोफेसर हेल्मट ग्लाजनाप, जगदीशचंद्र जैन, नाथराम प्रेमी, श्रीचंद रामपुरिया
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
स्रोत प्रोफेसर हेल्मट ग्लाजनाप : जैनधर्म (गुजराती); जगदीशचंद्र जैन : महावीर वर्धमान; नाथराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास; श्रीचंद रामपुरिया : संत भीखमजी।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक जगदीश चंद्र जैन

ऐतिहासिक रूपरेखा

जैन अर्थात्‌ कर्मों का नाश करनेवाले जिन भगवान के अनुयायी। जैन मान्यता के अनुसार जैन धर्म अनादि काल से चला आया है अनंत काल तक चलता रहेगा। इस धर्म का प्रचार करने के लिये समय समय पर अनेक तीर्थंकरों का आविर्भाव होता रहता है। जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों में ऋषभ प्रथम और महावीर अंतिम तीर्थंकर थे।

महावीर के 11 गणधर (मुख्य शिष्य) थे

गौतम इंद्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, अकंपित, आर्यव्यक्त, आर्यसुधर्मा, मंडितपुत्र, मौर्यपुत्र, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास। महावीर स्वयं क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे लेकिन उनके सभी गणधर ब्राह्मण थे। इनमें गौतम इंद्रभूति और सुधर्मा को छोड़कर नौ गणधरों ने महावीर भगवान के जीवन काल में ही देह त्याग किया। जिस रात्रि को महावीर ने निर्वाण पाया उसी रात्रि को गौतम इंद्रभूति को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।

महावीर-निर्वाण के पश्चात्‌ सुधर्मा 2० वर्ष तक जैन संघ के अधिपति रहे। बाद में संघ का भार जंबूस्वामी के सुपुर्द कर दिया गया और इस प्रकार जैन परंपरा आगे बढ़ती रही। जंबूस्वामी के पश्चात्‌ केवलज्ञान और निर्वाण-गमन के द्वार बंद हो गए।

पार्श्वनाथ की मान्यता का अनुसरण कर लिच्छवी कुलोत्पन्न महावीर ने चतुर्विध संघ को दृढ़ बनाने के लिये गणतंत्रवादी आदर्श पर संघ के नियमों को संघटित किया। निर्ग्रंथ धर्म का प्रचार करने के लिए ज्ञातपुत्र महावीर ने बिहार में राजगृह, चंपा (भागलपुर), मछिया (मुंगेर), वैशाली (बसाढ़) और मिथिला (जनकपुर) आदि तथा उत्तर-प्रदेश में बनारस, कौशांबी (कोसम) अयोध्या, श्रावस्ति (सहेट-महेट) और स्थूणा (स्थानेश्वर) आदि स्थानों में विहार किया। उस समय यही आर्य क्षेत्र कहलाता था, शेष क्षेत्र अनार्य था।

मगध के राजा बिंबसार (श्रेणिक) और अजातशत्रु (कूणिक) को जैनधर्म का अनुयायी कहा गया है। राजसिंह श्रेणिक द्वारा महावीर से प्रश्न पूछे जाने का उल्लेख जैन शास्त्रों में आता है। चंपा नगरी में महावीर भगवान के समवसृत होने पर अजातशत्रु का अपने दलबल सहित उनके दर्शनार्थ गमन करने का वर्णन प्राचीन आगमों में मिलता है। नंद राजाओं के समय भद्रबाहु और स्थूलभद्र बड़े प्रतिभाशाली जैन आचार्य हुए जिन्होंने जैन धर्म को समुन्नत बनाया। आचार्य महागिरि स्थूलभद्र के प्रधान शिष्यों में से थे। तत्पश्चात्‌ पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य (325-3०2 ईo पूर्व) का राज्य हुआ। इस समय मगध में भयंकर दुष्काल पड़ा और जैन साधु मगध छोड़कर चले गए। दुष्काल समाप्त होने पर जब लौटकर आए तब पाटलिपुत्र में जैन आगमों की प्रथम वाचना हुई जो पाटलिपुत्र-वाचना के नाम से कही जाती है। दिगंबर जैन परंपरा के अनुसार चंद्रगुप्त ने जैन दीक्षा ग्रहण की और दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला में देह-त्याग किया। चंद्रगुप्त के बाद अशोक (272-232 ईo पूo) के पौत्र राजा संप्रति (22०-211 ईo पूo) का नाम जैन ग्रंथों में बहुत आदर के साथ लिया जाता है। आचार्य महागिरि के शिष्य सुहस्ति ने संप्रति को जैन धर्म में दीक्षित किया। संप्रति ने महाराष्ट्र, आंध्र. द्रविड़, कुर्ग आदि प्रदेशों में अपने सुभटों को भेजकर जैन श्रमणसंघ की विशेष प्रभावना की।

कलिंग का सम्राट् खारवेल जैन धर्म का परम अनुयायी था। मगध का राजा नंद, जो जिन-प्रतिमा उठाकर ले गया था, उसे वह वापस लाया। कटक के पास उदयगिरि से प्राप्त, शिलालेखों से पता चलता है कि खारवेल ने ऋषभ की प्रतिमा निर्माण कराई और जैन साधुओं के रहने के लिये गुफाएँ खुदवाईं। तत्पश्चात्‌ ईसवी सन्‌ के पूर्व प्रथम शताब्दी में उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य के पिता गर्दभिल्ल से उत्तेजित किए जाने पर कालकाचार्य का ईरान जाकर शक राजाओं को हिंदुस्तान में लाने का उल्लेख जैन ग्रंथों में मिलता है। कालकाचार्य को प्रतिष्ठान (पैठन, महाराष्ट्र) के राजा सातवाहन का समकालीन बताया गया है। फिर आचार्य पादलिप्त, वज्रस्वामी और आर्यरक्षित ने संघ का अधिपतित्व किया। इस प्रकार जैन धर्म की उन्नति होती गई और अब वह दूर दूर तक फैल गया।

मथुरा में ईसवी सन्‌ के आरंभ के जो शिलालेख उपलब्ध हुए हैं उनसे पता लगता है कि किसी समय मथुरा जैन धर्म का बड़ा केंद्र था तथा व्यापारी और निम्नवर्ग के लोग इस धर्म के अनुयायी थे। यहाँ के शिलालेखों में जो जैन आचार्यों के गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख है वह भद्रबाहु के कल्पसूत्र की स्थाविरावलि में ज्यों का त्यों मिलता है। ईसवी सन्‌ 36०-73 के लगभग आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में जैन आगमों की दूसरी वाचना हुई, इससे भी मथुरा के महत्त्व का पता चलता है। इस काल के प्रमुख जैन आचार्यो में उमास्वाति, कुंदकुंद, सिद्धसेन और समंतभद्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अपनी अलौकिक प्रतिभा के बल से जैन साहित्य को पुष्पित और पल्लवित किया।

गुप्त राजाओं का काल भारतवर्ष का सुवर्णकाल कहा जाता है। इस समय जैन धर्म उत्तरोत्तर उन्नत दशा को प्राप्त होता गया। गुजरात में गिरनार और शत्रुंजय जैनों के परम तीर्थ माने गए हैं। ईसवीं सन्‌ की 7वीं शताब्दी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के अधिपतित्व में बलभी में जैन आगमों की अंतिम वाचना स्वीकार कर उन्हें लिपिबद्ध कर दिया गया। आगे चलकर चावड़ा वंश के राजा वनराज ने राजगद्दी पर आसीन होने के पूर्व (72०-78०) जैन मुनि शीलगुणसूरि के उपदेश से प्रभावित हो गुजरात का प्रसिद्ध अणहिल्लपुर पाटण नाम का नगर बसाया। हरिभद्र और अकलंक जैसे प्रकांड विद्वानों का इस समय जन्म हुआ जिन्होंने न्यायसिद्धांत आदि विषयों पर ग्रंथ लिखकर जैन धर्म को समुन्नत किया।

फिर चालुक्य वंश के स्थापक राजा मूलराज (961-996) ने जैन मंदिर का निर्माण कराया। अणहिल्लपुर पाटण के राजा सिद्धराज जयसिंह कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्र (जन्म 1०88 ईo) के समकालीन थे। सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु हो जाने पर उनका भतीजा कुमारपाल गुजरात की गद्दी पर बैठा। कुमारपाल हेमचंद को राजगुरु की तरह मानते थे। इस समय आदर्श जैन राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया गया जिसके फलस्वरूप अनेक सुंदर जैन मंदिरों का निर्माण हुआ; प्राणि हिंसा, शिकार, मांस-भक्षण आदि को रोकने की घोषणा की गई और यज्ञ के अवसर पर पशुहिंसा के बदले ब्राह्मणों को अनाज होम करने का आदेश दिया गया। इसी समय वस्तुपाल और तेजपाल मंत्रियों ने गिरनार, शत्रुंजय तथा आबू पर्वतों पर कलापूर्ण भव्य मंदिरों का निर्माण किया।

दक्षिण भारत में भी जैनधर्म का प्रसार हुआ, खासकर दिगंबर जैनों का वहाँ प्रवेश हुआ। ईसा सन्‌ की प्रारंभिक शताब्दियों से ही तमिल साहित्य पर जैन धर्म का प्रभावदृष्टिगोचर होता है। चोल और चेर इस धर्म के अनुयायी बने। महाराष्ट्र, कर्नाटक, मद्रास राज्य के उत्तरी भाग, कुर्ग, आंध्र और मैसूर राज्य में अनेक जैन धर्मानुयायी लोग बसते थे, इसा पता इन स्थानों के जीर्णशीर्ण देवालयों और शिलालेखों से लगता है। कर्नाटक दिगंबर संप्रदाय का मुख्य धाम था। दिगंबर आचार्य समंतभद्र और पूज्यपाद ने इस प्रदेश में घूम घूमकर जैने धर्म का अभ्युत्थान किया था। गंग और राष्ट्रकूट राजवंशों के आश्रय से जैन धर्म उन्नत हुआ। गंगवंशी राजा राजमल्ल के मंत्री और सेनापति तथा सिद्धांतचक्रवर्ती नेमिचंद्र के गुरु चामुंडराय ने सन्‌ 98० में अरिष्टनेमि का भव्य देवालय और गोम्मटेश्वर की प्रकंड प्रतिमा का निर्माण कराया। चामुंडराय सुप्रद्धि कविरत्न का आश्रयदाता था। राष्ट्रकूट वंश के राजाओं में अमोघवर्ष प्रथम (815-877 ईo) जैन आचार्य जिनसेन के शिष्य थे। अमोघवर्ष ने जिनसेन के शिष्य गुणभद्र को भी आश्रय दिया। कदंबवंशी भी अधिकतर जैने धर्म के अनुयायी रहे।

मुसलमानों के राज्य में अनेक बादशाहों ने जैन मुनियों को सम्मानित कर उच्च पद पर बैठाया। सुलतान फिरोजशाह तुगलक (1351-1388) ने रत्नशेखरसूरि को, तुगलक सुलतान मुहम्मद शाह ने जिरप्रभसूरि के और सम्राट् अकबर (1556-19०5) ने हीरविजयसूरि को सम्मानित किया। इसी प्रकार औरंगजेब (1659-17०7) ने अपने दरबार के जवेरी शांतिदास जैन को शत्रुंजय पर्वत और उसकी दो लाख की आमदनी, तथा अहमदशाह (1748-1745) ने जगत्‌सेठ महताबराय को पारसनाथ पर्वत देकर पुरस्कृत किया।

संभेद्रिखर, राजगिर, पावापुरी, गिरनार, शत्रुंजय, श्रवणबेलगोला आदि जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ हैं। पर्यूषण या दशलाक्षणी, दिवाली और रक्षाबंधन इनके मुख्य त्योहार हैं। 1951 की जनगणना के अनुसार भारत में जैनों की संख्या 16 लाख 18 हजार है। अहमदाबाद, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश और बंगाल आदि के अनेक जैन आजकल भारत के अग्रगण्य उद्योगपति और व्यापारियों में गिने जाते हैं।

जैनधर्म के सिद्धांत

जैन धर्म में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इंद्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैनधर्म में सच्ची अहिंसा बताया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेंद्रिय जीवों की हिंसा का भी इस धर्म में निषेध है।

जैनधर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है कर्म। महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है। जैनधर्म में ईश्वर को जगत्‌ का कर्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है। यहाँ नित्य, एक अथवा मुक्त ईश्वर को अथवा अवतारवाद को स्वीकार नहीं किया गया। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अंतराय, आयु, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि के प्रपंच में नहीं पड़ता।

जैनधर्म में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नाम के छ: द्रव्य माने गए हैं। ये द्रव्य लोकाकाश में पाए जाते हैं, अलोकाकाश में केवल आकाश ही है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व है। इन तत्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन के बाद सम्यग्ज्ञान और फिर ्व्रात, तप, संयम आदि के पालन करने से सम्यक्चारित्र उत्पन्न होता है। इन तीन रत्नों को मोक्ष का मार्ग बताया है। रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त कर लेने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष होने पर जीव समस्त कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है, और ऊर्ध्वगति होने के कारण वह लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला पर अवस्थित हो जाता है। उसे अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य की प्राप्ति होती है और वह अंतकाल तक वहाँ निवास करता है, वहाँ से लौटकर नहीं आता।

अनेकांतवाद जैनधर्म का तीसरा मुख्य सिद्धांत है। इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए। राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत ने होकर दूसरे के दृष्टिबिंदु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकांतवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी मत या सिद्धांत को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। अनेकांतवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है। आगे चलकर जब इस सिद्धांत को तार्किक रूप दिया गया तो यह स्याद्वाद नाम से कहा जाने लगा तथा, स्यात्‌ अस्ति', 'स्यात्‌ नास्ति', स्यात्‌ अस्ति नास्ति', 'स्यात्‌ अवक्तव्य,' 'स्यात्‌ अस्ति अवक्तव्य', 'स्यात्‌ नास्ति अवक्तव्य' और 'स्यात्‌ अस्ति नास्ति अवक्तव्य', इन सात भागों के कारण सप्तभंगी नाम से प्रसिद्ध हुआ।

आचार विचार== जैन धर्म में आत्मशुद्धि पर जोर दिया गया है। आत्मशुद्धि प्राप्त करने के लिये जैन धर्म में देह-दमन और कष्टसहिष्णुता को मुख्य माना गया है। निर्ग्रंथ और निष्परिग्रही होने के कारण तपस्वी महावीन नग्न अवस्था में विचरण किया करते थे। यह बाह्य तप भी अंतरंग शुद्धि के लिये ही किया जाता था। प्राचीन जैन सूत्रों में कहा गया है कि भले ही कोई नग्न अवस्था में रहे या एक एक महीने उपवास करे, किंतु यदि उसके मन में माया है तो उसे सिद्धि मिलने वाली नहीं। जैन आचार-विचार के पालन करने को शूरों का मार्ग कहा गया है। जैसे लोहे के चने चबाना, बालू का ग्रास भक्षण करना, समुद्र को भुजाओं से पार करना और तलवार की धार पर चलना दुस्साध्य है, वैसे ही निर्ग्रंथ प्रवचन के आचरण को भी दुस्साध्य कहा गया है।

बौद्ध धर्म की भाँति जैन धर्म में भी जातिभेद को स्वीकार नहीं किया गया। प्राचीन जैन ग्रंथों में कहा गया है कि सच्चा ब्राह्मण वही है जिसने राग, द्वेष और भय पर विजय प्राप्त की है और जो अपनी इंद्रियों पर निग्रह रखता है। जैन धर्म में अपने अपने कर्मों के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र की कल्पना की गई है, किसी जाति विशेष में उत्पन्न होने से नहीं। महावीर ने अनेक म्लेच्छ, चोर, डाकू, मछुए, वेश्या और चांडालपुत्रों को जैन धर्म में दीक्षित किया था। इस प्रकार के अनेक कथानक जैन ग्रंथों में पाए जाते हैं।

जैन धर्म के सभी तीर्थकर क्षत्रिय कुल में हुए थे। इससे मालूम होता है कि पूर्वकाल में जैन धर्म क्षत्रियों का धर्म था, लेकिन आजकल अधिकांश वैश्य लोग ही इसके अनुयायी हैं। वैसे दक्षिण भारत में सेतवाल आदि कितने ही जैन खेतीबारी का धंधा करते हैं। पंचमों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के धंधे करनेवाले लोग पाए जाते हैं। जिनसेन मठ (कोल्हापुर) के अनुयायियों को छोड़कर और किसी मठ के अनुयायी चतुर्थ नहीं कहे जाते। चतुर्थ लोग साधारणतया खेती और जमींदारी करते हैं। सतारा और बीजापुर जिलों में कितने ही जैन धर्म के अनुयायी जुलाहे, छिपी, दर्जी, सुनार और कसेरे आदि का पेशा करते हैं।

जैन साहित्य

महावीर की प्रवृत्तियों का केंद्र मगध रहा है, इसलिये उन्होंने यहाँ की लोकभाषा अर्धमागधी में अपना उपदेश दिया जो उपलब्ध जैन आगमों में सुरक्षित है। ये आगम 45 हैं और इन्हें श्वेतांबर जैन प्रमाण मानते हैं, दिगंबर जैन नहीं। दिंगबरों के अनुसार आगम साहित्य कालदोष से विच्छिन्न हो गया है। दिगंबर षट्खंडागम को स्वीकार करते हैं जो 12वें अंगदृष्टिवाद का अंश माना गया है। दिगंबरों के प्राचीन साहित्य की भाषा शौरसेनी है। आगे चलकर अपभ्रंश तथा अपभ्रंश की उत्तरकालीन लोक-भाषाओं में जैन पंडितों ने अपनी रचनाएँ लिखकर भाषा साहित्य को समृद्ध बनाया।

जैन संप्रदाय, सात निह्नव

बौद्ध श्रमणसंघ की भाँति महावीर-निर्वाण के पश्चात्‌ जैन श्रमणसंघ में भी अनेक मतभेद हो गए। प्राचीन जैन सूत्रों में सात निह्नवों का उल्लेख मिलता है, इनमें से दो निह्नव तो महावीर के जीवन-काल में ही उत्पन्न हो गए थे। बहुरत नाम के पहले निह्नव के संस्थापक क्षत्रियकुंड ग्राम के निवासी स्वयं भगवान महावीर के दामाद जमालि थे; महावीर को केवलज्ञान होने के 14 वर्ष पश्चात्‌ श्रावस्ती में इनकी उत्पत्ति हुई मानी जाती है। जमालि की मान्यता थी कि किसी कार्य को पूर्ण होने में बहुत समय लगता है, एक समय में वह पूर्ण नहीं होता, अतएव क्रियमाण को कृत नहीं किया जा सकता। महावीर की पुत्री प्रियदर्शना ने पहले तो अपने पति के पक्ष का समर्थन किया लेकिन बाद में वह महावीर की शिष्या बन गई। इसके दो वर्ष पश्चात्‌ आचार्य बसु के शिष्य तिष्यगुप्त ने राजगृह में आत्मा संबंधी विवाद खड़ा किया। महावीर के मतानुसार आत्मा शरीर के समस्त परमाणुओं में व्याप्त है, लेकिन तिष्यगुप्त का कहना था कि जीव का कोई एक या दो प्रदेश जीव नहीं कहा जा सकता, किसी अंतिम प्रदेश को ही जीव कहना चाहिए। यह जीव प्रदेश नाम का दूसरा निह्नव है। फिर महावीर-निर्वाण के 214 वर्ष पश्चात्‌ अव्यक्तवादी आषाढ़भूति आचार्य हुए जिन्होंने सेतव्यानगरी में समस्त जगत्‌ को अव्यक्त प्रतिपादन करते हुए साधु या देवयोनि में कोई भेद स्वीकार करने से इनकार कर दिया। यह अव्यक्तवाद नाम का तीसरा निह्नव कहलाया। इसके 6 वर्ष पश्चात्‌ समुच्छेदवादी महागिरि के प्रशिष्य और कौंडिन्य के शिष्य अश्वमित्र ने मिथिला में प्रतिपादन किया कि जीव तो प्रति समय नष्ट होता रहता है, फिर पुण्य-पाप का भोग कौन करेगा? इसी को लेकर चौथे निह्नव की स्थापना हुई। इसे 8 वर्ष बाद महागिरि के प्रशिष्य और धनगुप्त के शिष्य गंगाचार्य ने उल्लुकातीर में द्वैक्रियवाद नामक पाँचवाँ निह्नव स्थापित किया। इस सिद्धांत के अनुसार शीत और उष्ण आदि परस्पर विरोधी भावों का संवेदन संभव है। तत्पश्चात्‌ महावीर-निर्वाण के 544 वर्ष बाद श्रीगुप्त के शिष्य रोहगुप्त (अथवा वैशेषिक मत के प्रवर्तक षडुलुक) ने अंतरंजिया में त्रिराशिवाद का प्रतिपादन करते हुए जीव-राशि को पृथक्‌ स्वीकार किया। कुछ लोग मंखलि गोशाल को इस मत का अनुयायी स्वीकार करते हैं, और कुछ वैशेषिक दर्शन को त्रिराशिवाद का अंग मानते हैं। यह छठा निह्नव है। महावीर-निर्वाण के 584 वर्ष बाद अबद्धवादी गोष्ठामहिल हुए जिनके मतानुसार आत्मा का कर्म के साथ बंध नहीं होता, केवल स्पर्श भर होता है। यह सातवाँ निह्नव है जिसकी उत्पत्ति दशपुर में हुई।

दिगंबर-श्वेतांबर मतभेद

महावीर भगवान के पश्चात्‌ जैन स्थविरों की पंरपरा से पता लगता है कि आचार्य भद्रबाहु के समय तक दिगंबर और श्वेेतांबर परंपरा में विशेष मतभेद नहीं था। ईसवी सन्‌ की प्रथम शताब्दी के आसपास ये दोनो परंपराएँ जुदी पड़ गई (देखिए दिगंबर)। दोनों संप्रदायों में निम्नलिखित मुख्य भेद हैं--

(क) दिगंबर संप्रदाय में मोक्ष के लिये नग्नत्व को मुख्य बताया गया हैं, जब कि श्वेतांबर मोक्ष पाने के लिये नग्नत्व को आवश्यक नहीं मानते।

(ख) दिगंबर स्त्री-मुक्ति का निषेध करते हैं, श्वेतांबर परंपरा में 19 वें तीर्थकर मल्लिनाथ को मल्लिकुमारी के रूप में स्वीकार किया गया है।

(ग) दिगंबर श्वेेतांबर संप्रदाय द्वारा मान्य आगम-ग्रंथों को प्रामाणिक नहीं मानते।

(घ) दिगंबर संप्रदाय में सर्वज्ञ भगवान्‌ केवलज्ञानी हो जाने पर कवलाहार नहीं करते।

जैन स्थविरावलि

भद्रबाहु ने अपने कल्पसूत्र में जैन आचार्यों की स्थविरावलि दी है। इनके अनेक गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख यहाँ मिलता है1 इनके नाम मथुरा के कंकाली टीले के शिलालेखों में उत्कीर्ण हैं।

श्वेतांबर मूर्तिपूजकों के गच्छ

श्वेतांबरों के दो भेद हैं : मूर्तिपूजक और स्थानकवासी। श्वेतांबर मूर्तिपूजकों को पुजेरा, मूर्तिपुजक, देरावासी अथवा मंदिरमार्गी भी कहा जाता है। श्वेताम्बर संप्रदाय द्वारा मान्य गच्छों के नामों में मतभेद देखने में आता है। अनेक पत्रकों में सुप्रसिद्ध गच्छों के नाम भी नहीं पाए जाते। उद्योतन सूरि के समय (ईo 937) से इन गच्छों का आरंभ हुआ माना जाता है। कहते हैं, उद्योतन सूरि के 84 शिष्यों ने 84 गच्छों की स्थापना की। समय समय पर गच्छों के नामों में संशोधन परिवर्तन होता रहा। समस्त गच्छों के ऊपर एक श्रीपूज्य होता है; साधुओं के चातुर्मास आदि के संबंध में वह अपना निर्णय देता है, और आवश्यकता पड़ने पर किसी साधु को संघ के बाहर कर सकता है। गच्छ में मुनियों के ऊपर एक आचार्य होता है, उसके नीचे उपाध्याय और उपाध्याय के नीचे पंन्यास होता है जो यतियों की क्रियाओं का ध्यान रखता है पंन्यास के नीचे गणि होता है, वह भगवतीसूत्र तक का अभ्यासी होता है। जिन मुनियों का महानिशीथ तक का अभ्यास होता है वे श्रावकों को ्व्रात दे सकते हैं।

84 गच्छों में उपकेश, खरतर, तपा, पायचंद, पूनमिया, अंचल और आगमिक आदि गच्छ मुख्य हैं।

स्थानकवासी संप्रदाय

स्थानकवासियों की समस्त क्रियाएँ स्थानक (उपाश्रय) में होती हैं इसलिये ये स्थानकवासी कहे जाते हैं। इन्हें ढूँढ़िया, बिस्तोला अथवा साधुमार्गी भी कहते हैं। ये भी श्वेतांबर ही हैं, लेकिन मूर्तिपूजा को नहीं मानते और केवल 32 आगमों को प्रमाण मानते हैं। इसके संस्थापक लोंकाशाह थे जो अहमदाबाद में शास्त्रों की नकल किया करते थे। जैन आगमों के अध्ययन से इन्हें पता लगा कि इनमें मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं है, तथा सभी आगम प्रमाण नहीं माने जा सकते। आगे चलकर सन्‌ 1467 में लोंकाशाह साधु बन गए। इन्होंने लोंका अथवा लुंपाक संघ चलाया; भाणजी नामक श्रावक उनका प्रथम गणधर हुआ।

वीर के पुत्र लवजी ने लोंकामत में सुधार करने का प्रयत्न किया। उन्होंने सन्‌ 1653 में ढूँढ़िया नामक संप्रदाय चलाया जो बाद में लोंकामत का ही समर्थक हुआ। इस संप्रदाय के गुजरात में अनेक शिष्य बने।

दिगंबरों के संघ

मूलसंघ

दिगंबर मत के अनुसार विक्रम संवत्‌ 26 में मूलसंघ के प्रख्यात आचार्य अर्हद्बलि ने (इन्हें गुप्तिगुप्त या विशाख भी कहा जाता है) अपने संघ को चार शाखाओं में विभक्त किया -- नंदीसंघ, सेनसंघ, सिंहसंघ, और देवसंघ। नंदीसंघ के अनुयायी नंदी वृक्ष के नीचे चातुर्मास करते थे। इस संघ के नेता माघनंदी थे। सेनसंघ के अनुयायी झाड़ियों के नीचे चातुर्मास करते थे, इनके नेता जिनसेन थे। सिंहसंघ के अनुयायी सिंह की गुफाओं में चातुर्मास करते थे, इनके नेता सिंह थे। देवसंघ के अनुयायी देवदत्ता नाम की गणिका के घर में चातुर्मास करते थे, इनके नेता देव थे। इन शाखाओं के और भी उपभेद हैं जो शाखाओं के नेता साधुओं के नाम पर रखे गए हैं। मूलसंघ का सबसे पहला उल्लेख विo संo 482 के नोणमंगल के एक दानपत्र में मिलता है।

अन्य संघ

देवसेन (विo संo 99०) ने अपने दर्शनसार में यापनीय आदि संघों का उल्लेख किया है। द्राविड़, काष्ठा और माथुरसंघ को उन्होंने जैनाभास कहा है।

इसके अतिरिक्त श्वेतांबरों की भाँति दिगंबरों में भी मूर्तिपूजक और अमूर्तिपूजक नाम के उपसंप्रदाय पाए जाते हैं। तारणपंथी या समैयापंथी मूर्तिपूजा के विरोधी हैं। तारणस्वामी (1448-1515) ने इस पंथ की स्थापना की थी। इस पंथ के अनुयायी तारणस्वामी के 14 ग्रंथों को वेदी पर स्थापित कर उनकी पूजा करते हैं।

बीस पंथ

जैसे श्वेताबंरों में चैत्यवासी या मठवासी 'जती' या 'श्रीपूज्य' नाम से और वनवासी 'संवेगी' नाम से कहे जाते हैं (देखिए जिनेश्वर सूरि), वैसे ही दिगंबरों के भट्टारकों को मठवासी और नग्न मुनियों को वनवासी शाखा के अवशेष समझना चाहिए, यद्यपि ध्यान रखने की बात है कि श्वेेतांबर संप्रदाय की भाँति दिगंबर संप्रदाय में चैत्यवासी नाम के किसी पृथक्‌ संगठन का उल्लेख नहीं मिलता।

मालूम होता है, चैत्यवासी या मठवासी हो जाने पर भी दिगंबर साधु प्राय: नग्न ही रहते थे, लेकिन आगे चलकर उनमें वस्त्र धारण कने की प्रवृत्ति चल पड़ी। विक्रम की 16वीं शताब्दी के विद्वान्‌ श्रुतसागर ने लिखा है कि कलिकाल में म्लेच्छ आदि यतियों को नग्न अवस्था में देखकर उपद्रव करते हैं इसलिये मंडपदुर्ग (मांडू) में श्रीवसंतकीर्ति स्वामी ने उपदेश दिया कि मुनियों को चर्या आदि के समय चटाई, टाट आदि से शरीर को ढक लेना चाहिए और चर्या के बाद चटाई आदि को उतार देना चाहिए। ये वसंतकीर्ति चित्तौड़ की गद्दी के भट्टारक थे और विदृ संदृ 1264 के लगभग विद्यमान थे। इन्हीं वसंतकीर्ति भट्टारक के अनुयायी बीसपंथी कहे गए। बीसपंथ के अनुयायी भट्टारकों को अपना परम गुरु मानते हैं। इनके मंदिरों में क्षेत्रपाल और भैरव आदि देवों की प्रतिमाएँ रहती हैं। इन प्रतिमाओं की केशर से पूजा होती है, पुष्पों से श्रृंगार किया जाता है और इनपर नैवेद्य चढ़ाया जाता है। ये भट्टारक गाँवों और बाग-बगीचों के मालिक होते, मंदिरों का जीर्णोद्धार कराते, दूसरे मुनियों को आहार देते, दानशालाएँ निर्माण कराते, गद्दे तकियों पर बैठते, पालकी में चलते और इनके ऊपर छत्र चँवर डुलाए जाते हैं। कारकल मठ के महाधिपति ललितकीर्ति इसी प्रकार के भट्टारक थे जो 19०7 में विद्यमान थे।

तेरह पंथ

चैत्यवासियों का विरोध करने के लिये जो काम विधिमार्ग के विद्वानों ने श्वेतांबर संप्रदाय में किया, वही काम चैत्यवासी भट्टारकों का विरोध करने के लिये दिगंबर संप्रदाय तेरह पंथ ने किया। इस पंथ के अनुयायी प्राचीन काल से चले आते हुए कठोर नियमों के पालने में धर्म मानते हैं और वन में वास करनेवाले मुनियों को सच्चा मुनि स्वीकार करते हैं। सन्‌ 1626 में पंडित बनारसीदास ने आगरा में जिस शुद्ध आम्नाय का प्रचार किया वही आगे चलकर तेरह पंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तेरह पंथ नाम जब प्रचलित हो गया तब भट्टारकों का पुराना मार्ग बीस पंथ कहा जाने लगा। स्थानकवासियों के तेरापंथ से इसे भिन्न समझना चाहिए।

गुमानपंथी, तोतापंथी आदि पंथ भी दिगंबर संप्रदाय में प्रचलित थे।

तीर्थकर

तीर्थंकर उन्हें कहते हैं जो जीवों को उपदेश देकर उन्हें संसार रूपी समुद्र से पार उतारते हैं। तीर्थंकर को 'जिन' अथवा 'अर्हंत्‌' भी कहा जाता है, वे स्वयं बुद्ध होते हैं। उन्हें संघ का मूल नायक कहा गया है, चतुर्विध संघ की वे स्थापना करते हैं। उनके गर्भ, जनम, तप और मोक्ष नाम के चार कल्याणक माने गए हैं। धर्मप्रचार के लिये वे देश देश में विहार करते हैं और समवशरण में बैठकर समस्त जीवों के हितार्थ सबकी समझ में आनेवाली मागधी भाषा में उपदेश देते हैं।

चौबीस तीर्थंकर

जैनों के कथनानुसार जैन धर्म अनादिकाल से चला आया है। इस धर्म के प्रवर्तक अनेक तीर्थंकर हो गए हैं। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के प्रत्येक काल में चौबीस तीर्थंकर होते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल में निम्नलिखित 24 तीर्थंकरों ने जन्म लिया-

तीर्थंकर चिह्न तीर्थकर चिह्न
ऋषभ (वृषभ अथवा आदिनाथ) बैल विमल सूअर
अजित हाथी अनंत बाज
संभव घोड़ा धर्म वज्र
अभिनंदन बंदर शांति हरिण
सुमति बगुला कुंथु बकरा
पद्मप्रभ कमल अरं नंद्यावत
सुपार्श्व स्वस्तिक मल्लिन घट
चंद्रप्रभ चंद्रमा मुनिसुव्रत (अथवा सुव्रत) कछुआ
पुष्पदंत (अथवा सुविधि) मत्स्य नमि नील कमल
शीतल श्रीवत्स नेमि (अथवा अरिष्टनेमि) शंख
श्रेयांस गैंडा पार्श्व सर्प
वासुपूज्य भैंसा महावीर वर्धमान, (ज्ञातृपुत्र, वीर, अथवा सन्मति) सिंह

ये सब तीर्थंकर क्षत्रिय कुल में उत्पन्न माने जाते हैं। इनमें मुनिस्व्रुात और नेमि ने हरिवंश में तथा बाकी 22 तीर्थंकरों ने इक्ष्वाकुवंश में जन्म धारण किया। ऋषभ, नेमि और महावीर को छोड़ बाकी ने संमेदशिखर पर्वत पर निर्वाण पाया। इन तीर्थंकरों के बीच लाखों-करोड़ों वर्षों का अंतर बताया गया है। उदाहरण के लिये, 2०वें तीर्थंकर नेमि और 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के बीच 84,००० वर्ष का अंतर था। पार्श्वनाथ और महावीर के बीच कुल 25० वर्ष का अंतर बताया गया है। तीर्थंकरों की आयु और उनके शरीर की ऊँचाई भी अपरिमित मानी गई हैं। उदाहरण के लिये, ऋषभ की आयु 84 लाख वर्ष और उनके शरीर की ऊँचाई 5०० धनुष थी; नेमि की आयु 1००० वर्ष और ऊँचाई 1० धनुष थी। लेकिन पार्श्व की आयु 1०० वर्ष और ऊँचाई 9 हाथ तथा महावीर की आयु 72 वर्ष और ऊँचाई केवल 7 हाथ बताई गई है।

ऋषभ अयोध्या के निवासी थे और (अष्टापद) कैलाश पर्वत पर उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। भरत और बाहुबलि नाम के उनके दो पुत्र तथा ब्राह्मी और सुंदरी नाम की दो पुत्रियाँ थीं। ऋषभ ने भरत को शिल्पकला, बाहुबलि को चित्रकला, ब्राह्मी को अक्षरलिपि तथा सुंदरी को गणित की शिक्षा दी। जैन परंपरा के अनुसार ऋषभ ने ही सर्वप्रथम आग जलाना, खेती करना, बर्तन बनाना और कपड़े बुनने आदि की शिक्षा अपनी प्रजा को दी। उन्हें प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मचक्रवर्ती कहा गया है। भागवतपुराण (8वीं शताब्दी ईo) में ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है। बंगाल में ऋषभ की उपासना की जाती है और उन्हें अवधूत परम त्यागी योगी माना गया है। नाथ संप्रदाय में आदिनाथ को आदिगुरु स्वीकार किया गया है।

मल्लि का जन्म मिथिला में हुआ था। श्वेतांबर संप्रदाय में मल्लि को स्त्रीतीर्थंकर स्वीकार किया गया है। लेकिन दिगंबर, संप्रदाय में स्त्रीमुक्ति का निषेध है।

नमि की गणना करकंडू, दुर्मुख और नग्नजित्‌ नाम के प्रत्येक बुद्ध के साथ की गई है। कुछ लोग महाभारत के राजर्षि जनक को ही नमि मानते हैं जिन्हें जातक ग्रंथों में महाजनक कहा गया है। रामायण और पुराणों में नमि को मिथिला के राजवंश का संस्थापक बताया गया है।

नेमि समुद्रविजय के पुत्र थे जिनका जन्म सूर्यपुर में हुआ था। वसुदेव के पुत्र कृष्ण के वे चचेरे भाई थे। उग्रसेन की कन्या और कंस की बहन राजीमती के साथ उनका विवाह होनेवाला था। लेकिन विवाह के लिये बारात लेकर जते हुए उन्होंने बरातियों के भोजनार्थ एकत्रित पशुओं की चीत्कार सुनी और वे तुरंत वापस लौट गए। गिरनार पर्वत पर उन्होंने तप किया और वहीं से निर्वाण पाया।

पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म का उल्लेख बौद्धों के त्रिपिटकों में मिलता है और प्राचीन जैन ग्रंथों से मालूम होता है कि महावीर के माता पिता पार्श्व धर्म के अनुयायी थे, इसलिये पार्श्व को ऐतिहासिक पुरुष माना जाता है। भद्रबाहु के कल्पसूत्र के अनुसार इनके संघ में हजारों शिष्य थे (देखिए पार्श्वनाथ)।

महावीर बुद्ध के समकालीन थे। बौद्ध त्रिपिटकों में उन्हें निर्ग्रथ ज्ञातृपुत्र नाम से उल्लिखित किया गया है। इनका जन्म क्षत्रियकुँड ग्राम (आधुनिक वासुकुंड) में हुआ था और 72 वर्ष की उम्र में पावापुरी में कार्तिक कृष्णा 14 को उनका निर्वाण हुआ। जैनों की प्रचलित मान्यता के अनुसार यह समय विक्रम संवत्‌ से 47० वर्ष पूर्व (427 ईo पूo) और शक संवत्‌ से 6०5 वर्ष पूर्व बैठता है। श्वेतांवर संप्रदाय के अनुसार महावीर पहले देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ में अवतरित हुए, लेकिन इंद्र द्वारा गर्भ का परिवर्तन कर दिए जाने पर वे त्रिशला क्षत्रियाणी की कोख से उत्पन्न हुए। उनके विवाह के संबंध में भी श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा में मतभेद पाया जाता है ( देखिए महावीर)।

अवसर्पिणीकाल के समाप्त होने पर उत्सर्पिणीकाल आरंभ होगा। उसमें भी 24 तीर्थंकर होंगे। मगध के राजा श्रेणिक (बिंबसार), कृष्ण और मंखलि गोशाल आदि इस काल में तीर्थकर पद धारण करेंगे।

जैन तीर्थंकरों की भाँति बौद्ध धर्म में भी 24 या 25 बुद्धों का उल्लेख मिलता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ