गोंड

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लेख सूचना
गोंड
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 11
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक राजाराम शास्त्री; सत्यप्रकाश मित्तल

गोंड भारत के कटि प्रदेश - विंध्यपर्वत, सतपुड़ा पठार, छत्तीसगढ़ मैदान में दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम - में गोदावरी नदी तक फैले हुए पहाड़ों और जंगलों में रहनेवाली आस्ट्रोलायड नस्ल तथा द्रविड़ परिवार की एक जनजाति, जो संभवत: पाँचवीं-छठी शताब्दी में दक्षिण से गोदावरी के तट को पकड़कर मध्य भारत के पहाड़ों और जंगलों में फैल गई। आज भी मोदियाल गोंड जैसे समूह हैं जो जंगलों में प्राय: नंगे घूमते और अपनी जीविका के लिये शिकार तथा वन्य फल मूल पर निर्भर हैं। गोंडों की जातीय भाषा गोंडी है जो द्रविड़ परिवार की है और तेलुगु, कन्नड़ आदि की अपेक्षा तमिल भाषा के अधिक निकट है।

बूड़ादेव, दुल्लादेव, घनश्यामदेव, बूड़ापेन (सूर्य) और भीवासू गोंडों के मुख्य देवता हैं। इनके अतिरिक्त फसल, शिकार, बीमारियों और वर्षा आदि के भिन्न भिन्न देवी देवता हैं। इन देवताओं को सूअर, बकरे और मुर्गे आदि की बलि देकर प्रसन्न किया जाता है। गोंडों का भूत प्रेत और जादू टोने में अत्यधिक विश्वास है और इनके जीवन में जादू टोने की भरमार है। किंतु बाहरी जगत्‌ के संपर्क के प्रभावस्वरूप इधर इसमें कुछ कमी हुई है। अनेक गोंड लंबे समय से हिंदू धर्म तथा संस्कृति के प्रभाव में हैं और कितनी ही जातियों तथा कबीलों ने बहुत से हिंदू विश्वासों, देवी देवताओं, रीति रिवाजों तथा वेशभूषा को अपना लिया है। पुरानी प्रथा के अनुसार मृतकों को दफनाया जाता है, किंतु बड़े और धनी लोगों के शव को जलाया जाने लगा है। स्त्रियाँ तथा बच्चे दफनाए जाते हैं।

आस्ट्रोलायड नस्ल की जनजातियों की भाँति विवाह संबंध के लिये गोंड भी सर्वत्र दो या अधिक बड़े समूहों में बंटे रहते हैं। एक समूह के अंदर की सभी शांखाओं के लोग 'भाई बंद' कहलाते हैं और सब शाखाएँ मिलकर एक बहिर्विवाही समूह बनाती हैं। कुछ क्षेत्रों से पाँच, छह और सात देवताओं की पूजा करनेवालों के नाम से ऐसे तीन समूह मिलते हैं। विवाह के लिये लड़के द्वारा लड़की को भगाए जाने की प्रथा है। भीतरी भागों में विवाह पूरे ग्राम समुदाय द्वारा संपन्न होता है और वही सब विवाह संबंधी कार्यो के लिये जिम्मेदार होता है। ऐसे अवसर पर कई दिन तक सामूहिक भोज और सामूहिक नृत्यगान चलता है। हर त्यौहार तथा उत्सव का मद्यपान आवश्यक अंग है। वधूमूल्य की प्रथा है और इसके लिए सुअर या बैल तथा कपड़े दिए जाते हैं।

युवकों की मनोरंजन संस्था

गोतुल का गोंडों के जीवन पर बहुत प्रभाव है। बस्ती से दूर गाँव के अविवाहित युवक एक बड़ा घर बनाते हैं। जहाँ वे रात्रि में नाचते, गाते और सोते हैं; एक ऐसा ही घर अविवाहित युवतियाँ भी तैयार करती हैं। बस्तर के भांड़िया गोंडों में अविवाहित युवक और युवतियों का एक ही कक्ष होता है जहाँ वे मिलकर नाचगान करते हैं। गोंड खेतिहर हैं और परंपरा से दहिया खेती करते हैं जो जंगल को जलाकर उसकी राख में की जाती है और जब एक स्थान की उर्वरता तथा जंगल समाप्त हो जाता है तब वहाँ से हटकर दूसरे स्थान को चुन लेते हैं। किंतु सरकारी निषेध के कारण यह प्रथा बहुत कम हो गई है। समस्त गाँव की भूमि समुदाय की सपत्ति होती है और खेती के लिये व्यक्तिगत परिवरों को आवश्यकतानुसार दी जाती है। दहिया खेती पर रोक लगने से और आबादी के दबाव के कारण अनेक समूहों को बाहरी क्षेत्रों तथा मैदानों की ओर आना पड़ा। किंतु वनप्रिय होने के कारण गोंड समूह शुरू से खेती की उपजाऊ जमीन की ओर आकृष्ट न हो सके और धीरे धीरे बाहरी लोगों ने इनके इलाकों की कृषियोग्य भूमि पर सहमतिपूर्ण अधिकार कर लिया। इस दृष्टि से दो प्रकार के गोंड मिलते हैं : एक तो वे हैं जो सामान्य किसान और भूमिधर हो गए हैं, जैसे राजगोंड, रघुवल, डडवे और कतुल्या गोंड। दूसरे वे हैं जो मिले जुले गाँवों में खेत मजदूरों, भाड़ झोंकने, पशु चराने और पालकी ढोने जैसे सेवक जातियों के काम करते हैं।

गोंडों का प्रदेश गोंडवाना के नाम से भी प्रसिद्ध है जहाँ 15वीं तथा 17वीं शताब्दी के बीच गोंड राजवंशों के शासन स्थापित थे। किंतु गोंडों की छिटपुट आबादी समस्त मध्यप्रदेश में है। उड़ीसा, आंध्र और बिहार राज्यों में से प्रत्येक में दो से लेकर चार लाख तक गोंड हैं। असम के चाय बगीचोंवाले क्षेत्र में 50 हजार से अधिक गोंड आबाद हैं। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र और राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में भी गोंड आबाद हैं। गोंडों की कुल आबादी 30 से 40 लाख के बीच आँकी जाती है, यद्यपि सन्‌ 1941 की जनगणना के अनुसार यह संख्या 25 लाख है। इसका कारण यह है कि अनेक गोंड जातियाँ अपने को हिंदू जातियों में गिनती हैं। बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के दक्षिणी भागों में भी कुछ गोंड जातियाँ हैं जो हिंदू समाज का अंग बन गई हैं। गोंड जातियाँ हिंदू जातीय समाज के प्राय: निम्न स्तर पर स्थित हैं और कुछ की गिनती अछूतों में भी होती है। गोंड लोग अपने को 12 जातियों में विभक्त मानते हैं। किंतु उनकी 50 से अधिक जातियाँ हैं जिनमें ऊँच नीच का भेदभाव भी है।

वास्तव में गोंडों को शुद्ध रूप में एक जनजाति कहना कठिन है। इनके विभिन्न समूह सभ्यता के विभिन्न स्तरों पर हैं और धर्म, भाषा तथा वेशभूषा संबंधी एकता भी उनमें नहीं है; न कोई ऐसा जनजातीय संगठन है जो सब गोंडों को एकता के सूत्र में बाँधता हो। उदाहरणार्थ राजगोंड अपने को हिंदू और क्षत्रिय कहते हैं तथा उन्हीं की भाँति रहते हैं। अन्य अनेक समूह गोंडी भाषा तथा पुराने जनजातीय धर्म को छोड़ चुके हैं।

गोडों का भारत की जनजातियों में महत्वपूर्ण स्थान है जिसका मुख्य कारण उनका इतिहास है। 15वीं से 17वीं शताब्दी के बीच गोंडवाना में अनेक गोंड राजवंशों का दृढ़ और सफल शासन स्थापित था। इन शासकों ने बहुत से दृढ़ दुर्ग, तालाब तथा स्मारक बनवाए और सफल शासकीय नीति तथा दक्षता का परिचय दिया। इनके शासन की परिधि मध्य भारत से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार तक पहुँचती थी। अभी हाल तक इनके मंडला और गढ़मंडल नाम के दो राज्य रहे हैं। गोंडवाने की प्रसिद्ध रानी दुर्गावती गोंड जाति की ही थी। गोंडों का नाम प्राय: खोंडों के साथ लिया जाता है जैसे भीलों का कोलों के साथ। यह संभवत: उनके भौगोलिक सांन्निध्य के कारण है।