महाभारत वन पर्व अध्याय 181 श्लोक 39-49

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एकाअशीत्यधिकशततम (181) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकाअशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 39-49 का हिन्दी अनुवाद

सर्पने कहा-भगवन्! मैं प्रमादवश विवेकशून्य हो गया था। इसीलिये मुझसे यह घोर अपराध हुआ हैं। आप कृपया क्षमा करें। तब मुझे गिरते देख वे महर्षि दयासे द्रवित होकर बोले- 'राजन्! धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हें इस शापसे मुक्त करेंगे। महाराज! जब तुम्हारे इस अभिमान और घोर पापका फल क्षीण हो जायगा, तब तुम्हें फिर तुम्हारे पुण्योंका फल प्राप्त होगा'। उस समय मुझे उनकी तपस्याका महान् बल देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। राजन्! उनका ब्रहमा-ज्ञान और ब्राह्मणत्व देखकर भी मुझे बड़ा विस्मय हुआ। इसीलिये इस विषयमें मैंने तुमसे पहले प्रश्न किया। राजन्! सत्य, इन्द्रियसंयम, तपस्या, दान, अहिंसा और धर्मपरायण ये सद्धुण ही सदा मनुष्योंको सिद्धिकी करानेवाले हैं, जाति और कुल नहीं। ये रहे तुम्हारे भाई महाबली भीमसेन, जो सर्वथा सकशल हैं। महाराज! तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं पुनः स्वर्गलोकको जाऊँगा। पुरूषसिंह! पार्थ! तुम्हारे शुभागमनसे ही यह पुण्यकाल प्राप्त हुआ हैं, इस कारण तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य सिद्ध कर दिया।। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! तदनन्तर उसी मुहूर्तमें एक इच्छानुसार चलनेवाला उत्तम विमान बड़े जोरकी उड़ानके साथ वहां आ पहुंचा। युधिष्ठिरसे पूर्वोक्त बातें कहकर राजा नहुषने अजगरका शरीर त्याग दिया और दिव्य शरीर धारण करके वे पुनः स्वर्गलोक को चले गये।धर्मात्मा युधिष्ठिर भी भाई भीमसेनसे मिलकर उनके और धौम्यमुनिके साथ फिर अपने आश्रमपर लौट आये। तब धर्मराज युधिष्ठिरने वहां एकत्र हुए सब ब्राह्मणोंको भीमसेनके सर्पके चंगुलसे छूटनेका वह सारा वृतान्त कह सुनाया। राजन्! यह सुनकर सब ब्राह्मण, उनके तीनों भाई और यशस्विनी द्रौपदी सब-क-सब बड़े लज्जित हुए। तब पाण्डवोंके हितकी इच्छासे वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण भीमसेनको उनके दुःसाहसकी निन्दा करते हुए बोले-'अब कभी ऐसा न करना'। पाण्डवलोग महाबली भीमसेनकी भयसे मुक्त हुआ देख हर्षसे उल्लसित हो उठे और प्रसन्नतापूर्वक वहां विचरने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजगरपर्वमे भीमसेनके सर्पके भयसे छूटनेसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ इक्यासीवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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