गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 271
इस प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के साथ - साथ भक्ति ज्ञान के साथ एक हो जाती है । जीव भगवान् में आनंद लाभ करता है, उन्हें अखिल सत्, चित् और अनंद - स्वरूप जानता है, सब पदार्थो, प्राणियों और घटनाओं में उन्हींको अनुभव करता है, प्रकृति में, पुरूष में, उन्हींको देखता और प्रकृति और पुरूष के परे उन्हींको जानता है। वह नित्ययुक्त है, सतत भगवान् के साथ सनातन योग से युक्त है जिनके परे, जिन से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है , उन विश्वात्मा के साथ युक्त है जिनके अतिरिक्त और कोई नहीं, कुछ भी नहीं। वह एकभक्तिः है, उसकी सारी भक्ति उन्हीं एक पर केन्द्रित है, किसी आंशिक देवता, विधि - विधान या संप्रदाय पर नहीं उसके जीवन का संपूर्ण और एकमात्र नियम अनन्य भक्ति है, वह सब धार्मिक मत - मतांतरों, आचारों और जीवन के वैयक्तिक उद्देश्यों को पार कर चुका है। उसे कोई दुःख नहीं है जो दूर करने हों, क्योंकि वह सर्वानंदमय परमात्मा को पा चुका हैं।
उसकी कोई इच्छाएं नहीं हैं जिनके पीछे वह भटकता फिरे, क्योंकि वह उसे पा चुका है जो सबसे ऊंची चीज है, जो सब कुछ है, और सदा उस सर्व- शक्ति के समीप है जो संपूर्णता को देनेवाली है। उसमें कोई शंका या चकराने वाली खोज नहीं बची, क्योंकि उसपर सारा ज्ञान उस ज्योति से प्रवाहित हुआ करता है जिसमें वह निवास करता है । वह पूरी तरह भगवान् से प्रेम करता और भगवान का प्यारा होता है ; क्योंकि जैसे उसे भगवान् से आनंद मिलता है वैसे ही भगवान् भी उससे आनंद लाभ करते हैं। यही वह भगवतप्रेमी है जो ज्ञान से युक्त है, ज्ञानी भक्त हैं और, यह ‘‘ ज्ञानी - भक्त ” गीता में भगवान् कहते हैं कि, ‘‘ मेरी आत्मा है ” अन्य भक्त भगवान् के केवल प्रकृति गत भाव और स्वरूप ग्रहण करते हैं जिनके साथ वह एक हो जाता है। उसीका पराप्रकृति में दिव्य जन्म होता है- स्वरूप से समग्र, संकल्प में पूर्ण , प्रेम में अनन्य, ज्ञान में सिद्ध। उसीमें जीव का वैश्व जीवन चरितार्थ होता है, कारण वह अपने - आपको ही पार कर जाता और इस तरह अपने ही संपूर्ण और परम सत्य - स्वरूप को प्राप्त होता है।
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