गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 140
उन्होंने इस प्रश्न के प्रसंग से अपने छिपे हुए ईश्वर - रूप की वह बात कही जिसकी भूमिका वे तभी बांध चुके थे जब उन्होंने कर्म करते हुए भी कर्मो से न बधने के प्रसंग में अपना दिव्य दृष्टांत सामने रखा था। पर वहां उन्होंने इस बात को अच्छी तरह स्पष्ट नहीं किया था। अब वे अपने - आपको स्पष्ट शब्दों में अवतार घोषित करते हैं। भगवान् गुरू को चर्चा के प्रसंग में वेदांत की दृष्टि से अवतार - तत्व का प्रतिपादन संक्षेप में किया जा चुका है। गीता भी इस तत्व को वेदांत की ही दृष्टि से हमारे सामने रखती है। अब हम इस तत्व को जरा और अंदर बैठकर देखें और उस दिव्यजन्म के वास्तविक अभिप्राय को समझें जिसके बाह्म रूप को ही अवतार कहते हैं, क्योंकि गीता की शिक्षा में यह चीज एक ऐसी लड़ी है जिसके बिना इस शिक्षा की श्रृंखला पूरी नहीं होती । सबसे पहले हम श्रीगुरू के उन शब्दों का अनुवाद करके देखें जिनमें अवतार के स्वरूप और हेतु का संक्षेप में वर्णन किया गया है और उन श्लोकों को या वचनों को भी ध्यान में ले आवे जो उससे संबंध रखते हैं। “ हे अर्जुन, मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके; मैं उन सबको जानता हूं, पर हम तू नहीं जानता ।
हे परंतप, मैं अपनी सत्ता यद्यपि अज और अविनाशी हूं, सब भूतों का स्वामी हूं, तो भी अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर आत्म - माया से जन्म लिया करता हूं। जब - जब धर्म की ग्लीनि होती है और अधर्म का उत्थान , तब - तब मैं अपना सृजन करता हूं साधु पुरूषों को उबारने और पापात्माओं को नष्ट करने और धर्म की संस्थापना करने के लिये मैं युग - युग में जन्म लिया करता हूं । मेरे दिव्य जन्म और दिव्य कर्म को जो कोई तत्वतः जातना है , वह इस शरीर को छोड़कर पुनर्जन्म को नहीं , बल्कि, हे अर्जुन, मुझको प्राप्त होता है। राग, भय और क्रोध से मुक्त, मेरे ही भाव में लीन , मेरा ही आश्रय लेने वाले, ज्ञानतप से पुनीत अनेकों पुरूष मेरे भाव को ( पुरूषोत्तम - भाव को) प्राप्त हुए हैं। जो जिस प्रकार मेरी और आते हैं, उन्हें मैं उसी प्रकार पे्रमपूर्वक ग्रहण करता हूं - हे पार्थ, सब मनुष्य सब तरह से मेरे ही पथ का अनुसरण करते है।”१ गीता अपने कथन जारी रखते हुए बतलाती है कि बहुत से मनुष्य अपने कर्मो की सिद्ध चाहते हुए, देवताओं के अर्थात् एक परमेश्वर के विविध रूपों और व्यक्तित्वों के प्रीतयर्थ यज्ञ करते हैं, क्योंकि कर्मो से - ज्ञानरहित कर्मो से - होने वाली सिद्धि मानव - जगत् में सुगमता से प्राप्त होती है ; वह केवल उसी जगत् की होती हैं । परंतु दूसरी सिद्धि, अर्थात् पुरूषोत्तम के प्रीत्यर्थ किये जाने वाले ज्ञानयुक्त यज्ञ के द्वारा मनुष्य की दिव्य आत्मपरिपूर्णता, उसकी अपेक्षा अधिक कठिनता से प्राप्त होती है; इस यज्ञ के फल सत्ता की उच्चतर भूमिका के होते हैं और जल्दी पकड़ में नहीं आते ।
« पीछे | आगे » |