गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 213
इसकी प्रबलतम शक्ति को भी प्रभुता नहीं कह सकेते । इसपर यह भरोसा नहीं किया जा सकता कि यह प्रत्येक घटना के तीव्र वेग को या किसी दूसरे स्वभाव को रोक सकेगी जो उसे दबा देता या किसी प्रकार बदल देता अथवा उसमें मिल जाता है, और कुछ नही तो कम - से - कम छिपे - छिपे ही उसे धोखा देता या ठग लेता है। अत्यंत सात्विक बुद्धि भी राजस या तामस गुणों से इतनी दब जाती या उनमें मिल जाती या उनके द्वारा ठगी जाती है कि उसमें सत्व का अंश थोड़ा - सा ही रह जाता है और इसीसे एक ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है जिसमें मनुष्य अपने - आपको जबरदस्त धोखा दे बैठता है, इच्छा न होते हुए भी और सर्वथा निर्दोष रहते हुए भी कुछ- का कुछ मान बैठता है, और अपने - आपसे चीजों को छिपाने लगता है , जिस बात को मनोविज्ञानवेत्ता की निर्मम दृष्टि मनुष्य के अच्छे -से- अच्छे काम में ढूंढ़ लिकालती है ।
जब हम सोचते हैं कि हम सर्वथा स्वच्छन्दतापूर्वक काम कर रहे हैं तब यथार्थ में हमारे काम के पीछे ऐसी शक्तियां छिपी होती हैं, जिन्हें हम अत्यंत सावधनी से आत्म - निरीक्षण करते हुए भी नहीं देख पाते; जब हम सोचते हैं कि हम अहंकार से मुक्त हैं, उस समय भी वहां अहंकार छिपा रहता है , जैसे असाधु के मन में, वैसे ही साधु के मन में भी। जब हमारी आंखे अपने कर्मो और उनके मूल स्त्रोतों को देखने के लिये वास्तविक रूप से खुलती हैं, तब हमें गीता के इन शब्दों को दुहराना पड़ता है कि, प्रकृति के गुण ही गुणों को बरत रहें हैं ।इसलिये सत्वगुण का बहुत अधिक प्राधान्य भी स्वतंत्रता नहीं है। सत्व भी, जैसा कि गीता ने कहा है , अन्य गुणों के समान ही बंधनकारक है और यह भी अन्य गुणों की तरह कामना और अहंकार द्वारा ही बांधा करता है ; अवश्य ही यह कामना महत्तर और यह अहंकार विशुद्धतर होता है, परंतु जबतक ये दोनो किसी भी रूप में जीव को बांधे हुए रहते हैं, जबतक स्वतंत्रता नहीं है। पुण्यात्मा और ज्ञानी पुरूष का अहंकार पुण्य और ज्ञान का अहंकार होता है और वह इसी सात्विक अहंकर की तृप्ति चाहता है , वह अपने लिये ही पुण्य और ज्ञान की इच्छा करता है। सच्ची स्वाधीनता तो तभी होती है जबहम अहंकार की तृप्ति करना बंद कर दें, जब हम अहंकर के आसन से, हममें जो परिच्छिन्न ‘‘ मैं” है उसके आसन से चिंतन और संकल्प करना बंद कर दें। दूसरे शब्दों में, स्वतंत्रा का, उच्चतम आत्मवशित्व का आरंभ तब होता है
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