भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 37

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9.ज्ञान और रक्षा करने वाला ज्ञान

पूर्णता का लक्ष्य किस प्रकार प्राप्त किया जाए? संसार एक ऐतिहासिक अस्तित्व मानता है। यह एक दशा से अगली दशा की ओर होने वाले परिवर्तनों की अस्थायी परम्परा है। जो चीज़ सारे संसार को चला रही है, वह कर्म ही है। यदि संसार ज्वार और भाटे के सिवाय निरन्तर अस्तित्व मानता के सिवाय और कुछ नहीं है, तो यह कर्म के कारण ही है। मानवीय स्तर पर कर्म इच्छा या राग अर्थात् काम के कारण किया जाता है। इच्छा का मूल कारण अविद्या या वस्तुओं की प्रकृति के विषय में अज्ञान है। इच्छा का मूल व्यक्ति की आत्मनिर्भरता के अज्ञानपूर्ण विश्वास में और व्यक्ति पर वास्तविकता और स्थायित्व की उपाधि थोप देने में निहित है। जब तक अज्ञान बना हुआ है, तब तक अस्तित्व मानता (नाम-रूप) के दुश्चक्र से बच पाना सम्भव नहीं। हम इच्छाओं का इलाज और नई इच्छाओं द्वारा नहीं कर सकते। हम कर्म का इलाज और अधिक कर्म द्वारा नहीं कर सकते। शाश्वत को ऐसी वस्तु द्वारा, जो क्षणस्थायी है,[१] प्राप्त नहीं किया जा सकता। चाहे हम अच्छी इच्छाओं के बन्धन में बंधे हों या बुरी इच्छाओं के बन्धन में, बन्धन तो दोनों ही हैं। इससे क्या अन्तर पड़ता है कि जिन ज़ंजीरों में हम बंधे हैं, वे सोने की हैं या लोहे की?
बन्धन से छुटकारा पाने के लिए हमें अज्ञान से छुटकारा पाना होगा। यह अज्ञान ही अज्ञान पूर्ण इच्छाओं और इस प्रकार अज्ञानपूर्ण कर्मो का जनक है। विद्या या ज्ञान का अर्थ है—अविद्या, काम, कर्म की श्रृंखलाओं से मुक्ति। ज्ञान का घपला सैद्धान्तिक अध्ययन या सही विश्वासों से नहीं कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि अज्ञान कोई बौद्धिक भूल नहीं है। अज्ञान तो आध्यात्मिक अन्धता है। इसे हटाने के लिए हमें आत्मा की मलिनता को स्वच्छ करना होगा और आध्यात्मिक दृष्टि को जगाना होगा। वासना की आग और लालसाओं के कोलाहल का दमन करना होगा।[२] अस्थिर और चंचल चित्त को इस प्रकार स्थिर करना होगा कि जिससे उसमें ऊपर से आने वाला ज्ञान प्रतिबिम्बित हो सके। हमें इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखना होगा; एक ऐसी श्रद्धा प्राप्त करनी होगी, जो बौद्धिक सन्देहों से विचलित न हो सके; और बुद्धि को प्रशिक्षित करना होगा।[३]ज्ञान एक प्रत्यक्ष अनुभव है, जो उसकी प्राप्ति के मार्ग में विद्यमान बाधाओं के हटते ही स्वयं प्राप्त हो जाता है।
जिज्ञासु का प्रयत्न यह होना चाहिए कि उन बाधाओं को हटा दिया जाए; अविद्या की आवरण डालने वाल प्रवृत्तियों को दूर कर दिया जाएं। अद्वैत वेदान्त के अनुसार, यह ज्ञान सदा विद्यमान रहता है। यह कोई ऐसी वस्तु नहीं, जिसे कहीं से प्राप्त किया जाना हो। इसे तो केवल प्रकट-भर किया जाना है। हमारे अनियत ज्ञान, जो हमारी इच्छाओं और संस्कारों द्वारा समर्थित होते हैं, वास्तविकता को प्रकट नहीं करते। मन और संकल्प की पूर्ण निःशब्दता, अहंकार का रिक्तीकरण उस प्रकाश, ज्ञान या आलोक को उत्पन्न करता है, जिसके द्वारा हम बढ़ते-बढ़ते अपने सच्चे अस्तित्व तक पहुँच जाते हैं।[४] यह शाश्वत जीवन है, हमारी प्रेम और ज्ञान की क्षमताओं का सम्पूर्ण परिपूरण; बोइथियस के शब्दों में, “एक ही क्षण में असीम जीवन की बिलकुल एक-साथ और पूर्ण प्राप्ति।”
ज्ञान और अज्ञान प्राकाश और अन्धकार की भाँति एक-दूसरे के विरोधी हैं। जब ज्ञान का उदय होता है, तब अज्ञान मर जाता है और बुराई की जड़ ही कट जाती हैं। मुक्त आत्मा संसार को जीत लेती है। कोई ऐसी वस्तु नहीं बचती, जिसे जीतना शेष हो या सृजन करना शेष हो। तब कर्म-बन्धन नहीं रहता। जब हम इस ज्ञान तक पहुँच जाते हैं, तब हम भगवान् में जीने लगते हैं।[५] यह चेतना कोई अव्यक्त चेतना नहीं है। यह वह है, “जिसके द्वारा तू निरपवाद रूप से सब अस्तित्वों को आत्मा के अन्दर और उसके बाद मुझमें देखेगा।” सच्चा मानव-प्राणी पूर्णता के इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए वैसा ही निष्ठावान् रहता है, जैसी निष्ठा वह किसी ऐसी स्त्री के प्रति दिखाता है, जिसे वह प्रेम करता है।[६]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कठोपनिषद् 2, 10
  2. 4, 39
  3. 2, 44
  4. स्वरूप-ज्ञान या चेतना-रूप में ब्रह्म सदा विद्यमान रहता है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार, इसकी निरन्तर विद्यमानता अज्ञान को दूर नहीं करती। उल्टे यह इसे प्रकट करती है। साक्षात्कार के रूप में ज्ञान एक वृत्ति है और इस तरह अन्य किसी प्रकार के ज्ञान की भाँति ही एक कार्य (प्रभाव) है।
  5. 5, 20
  6. मुक्तिकान्ता।

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