गोबर

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:००, १८ अगस्त २०११ का अवतरण (Text replace - "०" to "0")
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
गोबर
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 24
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक संत सिंह


गोबर शब्द का प्रयोग गाय, बैल, भैंस या भैंसा के मल के लिये प्राय: होता है। घास, भूसा, खली आदि जो कुछ चौपायों द्वारा खाया जाता है उसके पाचन में कितने ही रासायनिक परिवर्तन होते हैं तथा जो पदार्थ अपचित रह जाते हैं वे शरीर के अन्य अपद्रव्यों के साथ गोबर के रूप में बाहर निकल जाते हैं। यह साधारणत: नम, अर्द्ध ठोस होता है, पर पशु के भोजन के अनुसार इसमें परिवर्तन भी होते रहते हैं। केवल हरी घास या अधिक खली पर निर्भर रहनेवाले पशुओं का गोबर पतला होता है। इसका रंग कुछ पीला एवं गाढ़ा भूरा होता है। इसमें घास, भूसे, अन्न के दानों के टुकड़े आदि विद्यमान रहते हैं और सरलता से पहचाने जा सकते हैं। सूखने पर यह कड़े पिंड में बदल जाता है।

गोबर में उपस्थित पदार्थ एवं गुण कई बातों पर निर्भर करते हैं, जैसे पशु की जाति, अवस्था, चारा, दिनचर्या आदि। चरनेवाले या काम करनेवाले पशुओं का गोबर एक स्थान पर बँधे रहनेवालों से भिन्न रहता है। दूध पीनेवाले बच्चों या बछवों का गोबर मनुष्यों के मल से कुछ कुछ मिलता जुलता है। अधिक भूसा एवं कम खली खाने वाले पशुओं के गोबर में नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ एंव वसा की मात्रा कम तथा सैलूलोज जैसी वस्तुएँ अधिक रहती हैं, किंतु अधिक खली खानेवाले पशुओं के गोबर में इसके विपरीत नाइट्रोजनवाले पदार्थ एवं वसा की मात्रा अधिक रहती है। गायों के गोबर में भी बच्चे के पेट में आने की अवस्था से लेकर दूध देने की अवस्था तक परिवर्तन होते रहते हैं। युवा पशु लगभग 70 प्रतिशत खाद्य शरीर में पचाता है, परंतु दूध देनेवाली गाय केवल 25 प्रतिशत ही पचा पाती है। शेष गोबर एव मूत्र में निकल जाता है। अन्न के दाने प्राय: मूल अवस्था में गोबर में विद्यमान रहते हैं; किंतु टूटे हुए, या पिसे हुए, अन्न के भाग पाचन क्रिया से प्रभावित हा जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ द्रव भी गोबर में रहता है। कहा जाता है कि यह द्रव कीटाणुनाशक होता है। गाय के गोबर में 86 प्रतिशत तक द्रव पाया जाता है। गोबर में खनिजों की भी मात्रा कम नहीं होती। इसमें फास्फोरस, नाइट्रोजन, चूना, पोटाश, मैंगनीज़, लोहा, सिलिकन, ऐल्यूमिनियम, गंधक आदि कुछ अधिक मात्रा में विद्यमान रहते हैं तथा आयोडीन, कोबल्ट, मोलिबडिनम आदि भी थोड़ी थोड़ी मात्रा में रहते हैं। अस्तु, गोबर खाद के रूप में, अधिकांश खनिजों के कारण, मिट्टी को उपजाऊ बनाता है। पौधों की मुख्य आवश्यकता नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटासियम की होती है। वे वस्तुएँ गोबर में क्रमश: 0.3- 0.4, 0.1- 0.15 तथा 0.15- 0.2 प्रतिशत तक विद्यमान रहती हैं। मिट्टी के संपर्क में आने से गोबर के विभिन्न तत्व मिट्टी के कणों को आपस में बाँधते हैं, किंतु अगर ये कण एक दूसरे के अत्यधिक समीप या जुड़े होते हैं तो वे तत्व उन्हें दूर दूर कर देते हैं, जिससे मिट्टी में हवा का प्रवेश होता है और पौधों की जड़ें सरलता से उसमें साँस ले पाती हैं। गोबर का समुचित लाभ खाद के रूप में ही प्रयोग करके पाया जा सकता है।

उपयोगिता

जैसा अभी कहा गया है, गोबर का सबसे लाभप्रद उपयोग खाद के रूप में ही हो सकता है, किंतु भारत में जलाने की लकड़ियों का अभाव होने से इसका अधिक उपयोग ईधंन के रूप में ही होता है। ईधंन के लिये इसके गोहरे या कंडे बनाकर सुखा लिए जाते हैं। सूखे गोहरे अच्छे जलते हैं और उनपर बना भोजन, मधुर आँच पर पकने के कारण, स्वादिष्ट होता है। किंतु गोबर का उचित एवं लाभप्रद उपयोग, जैसा कहा जा चुका है, खाद के रूप में ही है। सभी समृद्ध देशों में, जहाँ कहीं गोबर देनेवाले पशु होते हैं, गोबर से खाद बना ली जाती है और उससे खेत उपजाऊ बनाए जाते हैं।

गोबर से खाद बनाने की विधियाँ

भारत में पहले गोबर से खाद बनाने की दो विधियाँ प्रचलित थीं, किंतु एक तीसरी विधि भी अब प्रचलित की जा रही है। ये विधियाँ निम्नलिखित हैं: ठंड़ी विधि - इसके लिये उचित आकार के गढ़े, 20-25 फुट लंबे, 5-6 फुट चौड़े तथा 3 से लेकर 10 फुट गहरे, खोदे जाते हैं और इनमें गोबर भर दिया जाता है। भरते समय उसे इस प्रकार दबाते हैं कि कोई जगह खाली न रह जाए। गढ़े का ऊपरी भाग गुंबद की तरह बना लेते हैं और गोबर ही से उसे लेप लेते हैं, जिससे वर्षा ऋतु का अनावश्यक जल उसमें घुसने न पाए। तत्पश्चात्‌ लगभग तीन महीने तक खाद को बनने के लिये छोड़ देते हैं। इस विधि में गढ़े का ताप कभी 34° से ऊपर नहीं जा पाता, क्योंकि गढ़े में रासायनिक क्रियाएँ हवा के अभाव में सीमित रहती हैं। इस विधि में नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ खाद से निकलने नहीं पाते। गरम विधि - इस विधि में गोबर की एक पतली तह बिना दबाए डाल दी जाती है। हवा की उपस्थिति में रासायनिक परिवर्तन होते हैं, जिससे ताप 60° सें. तक पहुँच जाता है। तह को फिर दबा दिया जाता है और दूसरी पतली तह उस पर डाल दी जाती है जिसके ताप बढ़ने दिया जाता है। इस प्रकार ढेर दस से बीस फुट तक ऊँचा बन जाता है, जो कुछ महीनों के लिये इसी अवस्था में छोड़ दिया जाता है। इस रीति से विशेष लाभ यह होता है कि ताप बढ़ने पर घास, मोटे आदि हानिकर पौधों के बीज, जो गोबर में उपस्थित रह सकते हैं, नष्ट हो जाते हैं। प्रत्येक पशु से इस प्रकार 5 से 6 टन खाद बन सकती है।

हवा की उपस्थिति में खाद और गैस उत्पादन

भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र द्वारा विकसित की गई इस विधि में एक साधारण यंत्र का उपयोग होता है, जिसमें गोबर का पाचन हवा की अनुपस्थिति में होता। इस विधि से एक प्रकार की गैस निकलती है, जो प्रकाश करने, यंत्र चलाने तथा भोजन पकाने के लिये ईधंन के रूप में काम आती है। गोबर पानी का मिश्रण कर पाचक-यंत्र में प्रति दिन डालते जाते हैं और निकलने वाली गैस से उपरोक्त काम लेते हैं। इस विधि की विशेषता यह है कि गोबर सड़कर गंधहीन खाद के रूप में प्राप्त हो जाता है और इसके नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश आदि ऐसे उपयोगी तत्व बिना नष्ट हुए इसी में सुरक्षित रह जाते हैं। साथ साथ इससे उपयोगी गैस भी मिल जाती है। अनुमान है कि एक ग्राम परिवार, जिसमें 4-5 पशु हैं, लगभग 70-75 घन फुट जलने वाली गैस प्रति दिन तैयार कर सकता है। भारत में कुछ गोबर की मात्रा और उसमें उपस्थित नाईट्रोजन फास्फोरस एवं पोटाश का वार्षिक उत्पादन इस प्रकार है:

गोबर (सूखा) 1,446 लाख टन
कार्बनिक पदार्थ 1,157 लाख टन
नाइट्रोजन 18.08 लाख टन
फास्फोरस 7.23 लाख टन
पोटाश 1.085 लाख टन

किंतु गोबर का बहुत थोड़ा भाग ही खाद के रूप में प्रयुक्त हो पाता है। इसी कारण इस देश का उत्पादन दूसरे देशों के अनुपात बहुत कम है। जलावन के रूप में गोबर का उपयोग एक बहुमूल्य खाद को नष्ट करना है। नष्ट करना है। जहाँ तक हो गोबर को खाद के लिये ही काम में लाना चाहिए।


टीका टिप्पणी और संदर्भ