कचारी
कचारी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 361-362 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | रेवरेंड सिडनी ऐंडल, सी.ए. सोपिट |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1975 ईसवी |
स्रोत | रेवरेंड सिडनी ऐंडल: दि कचारीज़, लंदन, 1911; सी.ए. सोपिट: ऐन हिस्टॉरिकल ऐंड डेस्क्रिपटिव एकाउंट ऑव द कचारी ट्राइब्स इन द नार्थ कचार हिल्स, शिलांग, 1855; सेन्सस ऑव इंडिया रिपोर्ट्स, 1931 तथा 1951। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रवींद्र जैन |
कचारी असम राज्य के उत्तरी असम-भूटान-सीमावर्ती कामरूप और दरंग जिले वर्तमान कचारी या 'बड़ा' कबीले का मुख्य निवास स्थान हैं। इस कमी का मुख्य कारण कचारियों का हिंदू जातिव्यवस्था में प्रवेश है। असम राज्य की कुछ नदियों एवं प्राकृतिक विभागों के नाम कचारी मूल के हैं जिससे अनुमान होता है कि अतीत में कचारी कबीले का प्रसार संपूर्ण असम में रहा होगा। सन् 1911 में फ़ादर एंडल ने वास्तविक कचारियों के पड़ोसी राभा, मेछ, धीमल, कोच, मछलिया, लालुंग तथा गारो कबीलियों की गणना भी बृहद् कचारी प्रजाति (रेस) के अंतर्गत की थी और असम के 10,00,000 व्यक्तियों को इस श्रेणी में रखा था। किंतु बाद की जनगणनाओं और नृतात्विक अध्ययन के प्रकाश में यह मत तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।
कचारी मंगोल प्रजाति के हैं। मोटे तौर पर इनका पारिवारिक जीवन पड़ोसी हिंदुओं से अधिक भिन्न नहीं है। जीवननिर्वाह का मुख्य साधन कृषि है। दो प्रकार का धान, 'मैमा' और 'मैसा', दाल, रुई, ईख और तंबाकू इनकी प्रधान फसलें हैं। हाल में ये चाय बगान और कारखानों में मजदूरी पेशे की ओर भी आकृष्ट हुए हैं। खान-पान में खाद्यान्नों के अतिरिक्त सुअर के मांस, सूखी मछली ('ना ग्रान') और चावल की शराब 'जू' का इनमें अधक प्रचलन है। कुछ समय पूर्व तक कचारियों में दूध पीना ही नहीं वरन् छूना भी वर्जित था। मछली मारना पुरुष तथा स्त्री दोनों का धंधा है। किंतु सामूहिक आखेट में केवल पुरुष ही भाग लेते हैं। रेशम के कीड़े पालना और कपड़ा बुनना स्त्रियों का काम है। समाज में स्त्रियों का स्थान सामान्यत: उच्च है।
कचारी बहुत से बहिर्विवाही (एक्सोगैमस) और टोटमी कुलों (क्लैन्स) में विभाजित हैं। प्रत्येक कुल के सदस्यों द्वारा टोटमी पशु का वध वर्जित है। कबीली अंतर्विवाही विधान अचल नहीं है। निकटवर्ती राभा, कोच और सरनिया कबीलों से विवाह संभव है किंतु प्रतिष्ठित नहीं। विधुर अपनी छोटी साली से विवाह कर सकता है और विधवा अधकतर अपने देवर से विवाह करती है। सामान्यताया एकपत्नी कचारियों में भी अधिक धनी वर्ग के पुरष या संतानहीन व्यक्ति बहुपत्नीत्व अपनाते हैं। विवाह के लिए पति पत्नी, दोनों की पारस्परिक सम्मति आवश्यक है। शादी विवाह और संपत्ति से संबंधित सभी झगड़ों का निर्णय गाँव के गण्यमान्य व्यक्तियों की सभा के हाथ में होता है।
कचारियों के धर्म का सर्वप्रधान लक्षण आत्मावाद, अर्थात् भूत प्रेत आदि में विश्वास है। इस विश्वास के मूल में भय की भावना है। कचारी पृथ्वी, वायु और आकाश में दैवी शक्तियों का वास मानते है जिन्हें वे 'मोदई' की संज्ञा देते हैं1 इसमें अधिकांश दुरात्माएँ हैं, जिन्हें व्याधि, अकाल, भूकंप आदि दुर्घटनाओं के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। पूर्वजपूजा और प्रकृतिपूजा के छिटपुट प्रमाण मिलते हैं किंतु इनका कचारी धार्मिक विश्वासों में अधिक महत्व नहीं है। कचारियों में विशुद्ध कबीली देवी देवताओं की संख्या बहुत कम रह गई है और अनेक हिंदू देवी देवता अपना लिए गए हैं। कबीली देवी देवताओं में 19 गृहदेवता हैं और 65 ग्राम देवता, जिनकी पूजा गाँव से 15-20 गज दूर स्थित बाँसों या पेड़ों के झुरमुट (थानसाली) में की जाती है। जन्म, नामकरण तथा विवाह के अवसरों पर इनकी आराधना ग्राम का पुजारी 'देउरी' या 'देवदाई' करता है। गाँव के ओझा का काम भविष्यवाणी और मामूली झाड़ फूँक द्वारा इलाज करना है। हैजा और महामारी से गॉववालों की रक्षा 'देवयानी' कहलानेवाली आत्माओं के वशीभूत स्त्रियाँ करती हैं। साधारणत: मृतक का दाह-कर्म-संस्कार किया जाता है किंतु अधिक धनी वर्ग में शव गाड़ने की प्रथा पाई जाती है। कचारी विश्वास है कि मृत्यु का अर्थ केवल शारीरिक अवस्था में परिवर्तन है और मृतक की आत्मा नष्ट न होकर परिवर्तित रूप से बची रहती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
“खण्ड 2”, हिन्दी विश्वकोश, 1975 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 361-362।