गोथिक कला
गोथिक कला
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 20 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | एच.सी.ब्रूवर |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
स्रोत | एच.सी.ब्रूवर : गोथिक आर्ट इन स्पेन, लंदन, 1909; चार्ल्स एच. मूर : डेफिनिशन आव गोथिक, न्यूयार्क, 1916; एस. गार्डनर : इंग्लिश गोथिक फौलिएज स्कल्पचर, 1927। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | पद्मा उपाध्याय |
गोथिक कला मध्ययुगीन यूरोपीय वास्तु की एक शैली जो संभवत: जर्मन गोथ जाति के प्रभाव से आविर्भूत हुई थी; जिस शैली की इमारतें यद्यपि क्लासिकल शैली के सौंदर्य से विरहित थीं, पतले, ऊँचे अनेक शिखरों से मंडित होती थीं। इस शैली का बोलबोला 12वीं से 15वीं तक प्राय: चार सदियों बना रहा और अंत में पुनर्जागरण काल में इसका स्थान क्लासिकल शैली ने लिया।
वास्तु की दृष्टि से इस शैली की इमारतों में छरहरे ऊँचे खंभे सुंदर, कोणयुक्त मेहराबों को सिर से धारण करते हैं। बाहर की ओर से इनकी दीवारें पुश्तों से संपुष्ट की होती हैं। यूरोप के सैकड़ों गिरजे इसी शैली में बने हैं और इसी शैली में भारत के भी अधिकतर गिर्जे निर्मित हैं। नीचे स्तंभों की परंपरा से प्रस्तुत और ऊपर शूलशिखरों से व्याप्त गोथिक शैली की इमारतें सुदर्शन हैं। कालांतर में इस शैली में अलंकरण की व्यवस्था बढ़ती गई और इस शैली में निर्मित इमारतों की ज्यामितिक डिजाइनें वृत्ताकार तथा त्रिभुजाकार आवृत्तियाँ धारण करती गई। फूल-पौधों, लतावल्लरियों और पशुपक्षियों की आकृतियों की आकृतिसंपदा बढ़ती गई और मानवेतर रूपों की अभिव्यक्ति विशेष आग्रह से की जाने लगी।
गोथिक शैली की इमारतों, विशेषकर गिरजाघरों के दरवाजों और खिड़कियों में रंगीन काँच के टुकड़ों का उपयोग होने लगा जिनमें रंगों की विविधता विशेष आग्रह से प्रयुक्त हुई और गिरजाघरों का अंतरंग उनके योग से चमत्कृत हो उठा। उन्हीं काँच के टुकड़ों की सहायता से मानव आकृतियाँ भी बनाई जाने लगीं और संतों के चित्र रूपायित होने लगे। इस शैली की इमारतों के बहिरंग पर अनंत मूर्तियों का भी निर्माण होने लगा।
न केवल वास्तु के उपकरणों में बल्कि चित्रणकला में भी इस शैली का उपयोग हुआ और इसी के माध्यम से तत्कालीन ग्रंथ चित्रित किए जाने लगे, भित्तिचित्र लिखे जाने लगे। अधिकतर तेज रंगों का इस्तेमाल हुआ और चित्रों में स्वर्णधूलि अथवा रत्नों तक का उपयोग करने से चित्रकार न चूके। मूर्तिकला में भी पत्थर, लकड़ी, गजदंत आदि के माध्यम से इस शैली का विकास हुआ। तब के धातुओं में ढले अनेक अभिप्राय आज भी यूरोप के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। काष्ठकारिता और धातुकारिता, विशेषकर स्वर्णकारिता में यह शैली गहरे पैठी और आभिजात्य जीवन में अलंकरण का विशेष मान इसने प्रतिष्ठित किया। तत्कालीन आसनों, शैया तल्पों, पर्यकों आदि की हजारों गोथिक शैली में निर्मित साज सज्जा मध्यकाल के प्रासादों में प्रस्तुत हुई। इस शिल्प का एक विशिष्ट केंद्र वेनिस नगर में स्थापित हुआ जहाँ की काँच की वर्णशैली अन्यत्र दुष्प्राप्य थी। वहीं अधिकतर कलाबत्तू आदि में भी इस शैली का उपयोग हुआ और दीवारों के पर्दे तो उस शैली में इतने अभिराम बने कि, यद्यपि वे आज मिट चुके हैं, भित्तिचित्रों में उनके रूप, कलाबत्तू और मखमल के सहज आभास आज भी उत्पन्न कर देते हैं। उस शैली के लेखों की मर्यादा पिछले युगों में फिर कभी नहीं प्राप्त की जा सकी। उस मध्ययुग को साधारणत: यूरोपीय इतिहास में अंधकार युग कहा गया है, पर नि:संदेह कला के क्षेत्र में इस गोथिक वास्तुशैली ने, तक्षण, चित्रण, तंतुवाय संबधी चटख रंगों ने उसे प्रभूत आलोकित किया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ