रेल इंजन
रेल इंजन
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 10 |
पृष्ठ संख्या | 196-199 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1968 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | मदन मोहन लाल |
रेल के डिब्बों को खींचकर चलानेवाला कर्षणयंत्र है। अंग्रेजी में इसे 'लोकोमोटिव' (locomotive) तथा साधारण बोलचाल में 'रेल इंजन' कहते हैं। इंजन वस्तुत: वह यंत्र है जो भाप, तैल या बिजली से मशीन को चलाता है। आज कई प्रकार के इंजन विकसित हो चुके हैं। पहले पहल जो इंजन रेलगाड़ियों में प्रयुक्त हुए थे, वे प्रत्यागामी (reciprocating) भाप के इंजन थे, जो भाप से चलते थे। पीछे डीज़ल और विद्युत् इंजन उपयोग में आए। रेलगाड़ी चलाने में चार प्रकार के इंजनों का प्रयोग होता है। वे हैं : १. भाप का इंजन, २. बिजली का इंजन ३. गैस इंजन तथा ४. गैस टरबाइन इंजन।
रेल का भाप
इंजन
पहला रेल इंजन १८०२ ई. में रिचर्ड ट्रेविथिक (Richard Trevithick) द्वारा बनाया गया था, (देखें चित्र १.), जो विछाई हुई पटरी पर चलता था। सन् १८२९-३० में सर्वश्रेष्ठ इंजन के लिए ५०० पाउंड के पारितोषिक की घोषणा की गई और इसके फलस्वरूप पाँच इंजन परीक्षा के लिए आए, जिनमें सात दिनों की परीक्षा के बाद स्टेफेन रॉकेट सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया (देखें चित्र २.)। यह इंजन यात्रियों को लेकर प्रति घंटा २४ मील क चाल से चल सकता था। वस्तुत: यह बहुत छोटा इंजन था। अधिक तेज चाल एवं अधिक भार वहन करने के उद्देश्य से बाद में कई रेल के भाप इंजन बने। ऐसे रेल के भाप इंजन के आगे सामान्यत: एक ट्रक होता है जिसमें दो, या चार छोटे पहिए इंजन के आगे के भाग में होते हैं, जो मोड़ों पर इंजन को घुमा सकें। उसके पीछे कर्षण के लिए परस्पर जुड़े हुए चालक पहियों के एक, या दो समूह होते हैं, जो इंजन के भार का अधिकांश संभालते हैं। एक, दो, या चार पहिएवाला पीछे का ठेला होता है, जो इंजन के बॉयलर और भट्ठी के पिछले भाग को संभालता है। कभी कभी पीछे का ठेला नहीं रखा जाता।
रेल इंजनों का वर्गीकरण एवं क्रमनिर्धारण
रेल के भापइंजनों का वर्गीकरण पहियों और उनके विन्यास पर निर्भर करता है। सामान्यत: भाप के इंजनों के लिए एफ. एम. ह्वाइट (F. M. White) का वर्गीकरण प्रयुक्त होता है।
सामर्थ्य और क्षमता
रेल इंजन की सामर्थ्य प्रारंभिक कर्षणशक्ति और अधिकतम अश्वशक्ति के अनुसार होती है। कर्षणशक्ति चक्रसंसक्ति पर निर्भर कती है। चक्रसंसक्ति चक्र में प्रयुक्त सामग्री और रेल की पटरी की सूखी, गीली, चिकनी, या रेत पड़ी स्थिति पर निर्भर करती है। चालक पहिए पर प्रभावी भार का यह २५% माना जाता है। अधिक शक्ति और चाल की माँग ने भाप के दबाव और ताप को बढ़ा दिया। १९०० ई. में भाप का दबाव प्रति वर्ग इंच २०० पाउंड होता था, जो पीछे बढ़कर २३५ पाउंड और अमरीकी इंजनों का ३१० पाउंड हो गया।
इंजन में अग्निनली, या जलनली बॉयलर होते हैं। जलनली बायलर कुछ इंजनों में ही प्रयुक्त होते हैं, क्योंकि इस प्रकार के इंजनों में जल के कठोर होने पर कठिनता उत्पन्न होती है। कुछ रेल के इंजन के बायलरों में अतितापक (superheaters) लगे रहते हैं। इससे बिना दबाव बढ़ाए प्रति पाउंड भाप की ऊर्जा बढ़ जाती है। अतितापन से सिलिंडर में संघनन की मात्रा कम हो जाती है, जिससे प्रचालन दक्षता बढ़ जाती है। संयुक्त राज्य, अमरीका, में अतितापन का ताप १२१° सें. मानक माना गया है।
भाप के इंजन की तापीय दक्षता कर्षणदंड (draw bar) पर हुए कार्य के बराबर होती है। रेल के विभिन्न भाप इंजनों में तापीय दक्षता चार प्रतिशत से आठ प्रतिशत होती है। साधारणतया छह प्रतिशत से अधिक नहीं होती।
रेल का विद्युत् इंजन
किसी केंद्रीय उत्पादक स्थान से पारेषण द्वारा लाई गई बिजली से यह इंजन चलाता है। बिजली दिष्ट धारा (D. C.), या प्रत्यावर्ती धारा (A. C.) की हो सकती है। वोल्टता ६०० से २५,००० तक की हो सकती है। अमरीका, यूरोप एवं अन्य देशों में विभिन्न वोल्टताओं की बिजली प्रयुक्त होती है। रेल के विद्युत इंजनों का प्रचार संयुक्त राज्य, अमरीका, की अपेक्षा यूरोपीय देशों में अधिक शीघ्रता से हुआ है। अमरीका में यात्री इतने अधिक नहीं होते कि विद्युतीकरण पर अधिक खर्च किया जा सके।
रेल के विद्युत् इंजन के अनेक निश्चित लाभ हैं। इससे रेल के भाप-इंजन की अपेक्षा अत्यधिक उच्च शक्ति बड़ी सरलता से प्राप्त हो सकती है। अन्य इंजनों की अपेक्षा इसमें आवाज कम होती है और इनकी देखभाल में भी कम खर्च पड़ता है। ऐसे इंजनों में सफाई अधिक रहती है एवं धुएँ तथा दुर्गंध का सर्वथा अभाव रहता है। पहाड़ी क्षेत्रों में पुनर्योजी (regenerative) ब्रेक पद्धति विद्युत शक्ति को फिर से तंत्र में पहुँचा देती है और उतराई में रेलगाड़ी पर अधिक नियंत्रण रहता है। एक समय डीज़ल इंजन और रेल के विद्युत् इंजनों के खर्च एक से ही थे। पर ईधंन के मूल्य बढ़ जाने, या विद्युत् उत्पादन के मूल्य बढ़ जाने से संभवत: अपेक्षित मूल्य में कुछ परिवर्तन संभव हो सकता है।
अधिक रहती है एवं धुएँ तथा दुर्गंध का सर्वथा अभाव रहता है। पहाड़ी क्षेत्रों में पुनर्योजी (regenerative) ब्रेक पद्धति विद्युत शक्ति को फिर से तंत्र में पहुँचा देती है और उतराई में रेलगाड़ी पर अधिक नियंत्रण रहता है। एक समय डीज़ल इंजन और रेल के विद्युत् इंजनों के खर्च एक से ही थे। पर ईधंन के मूल्य बढ़ जाने, या विद्युत् उत्पादन के मूल्य बढ़ जाने से संभवत: अपेक्षित मूल्य में कुछ परिवर्तन संभव हो सकता है।
रेल के विद्युत् इंजन की डिज़ाइन
विद्युत् रेल इंजन में एक ट्रक होता है। यह ट्रक के ढाँचे और धुरी से जुड़ा, या लटका रहता है। इसी ट्रक में कर्षण मोटर रहती है। इस मोटर में प्रत्येक धुरी जुड़ी रहती है। किसी समय में दो, या दो से अधिक धुरियाँ गियर और पार्श्वदंड से बँधी होनी हैं और एक ही कर्षण मोटर से चलाई जाती हैं। स्थान की कमी के कारण धुरी पर बैठाई कर्षण मोटर की क्षमता सीमित होती है। ऊँची शक्ति वाली मोटर ट्रक की कमानी से लगाई जाती है और यह पहिए के साथ घूम सकती है। मोटर से धुरी तक चालन में आवश्यक लचीलापन विविध पारेषण कड़ियों की जुड़ाई से आ जाता है।
दिष्टधारा प्रणाली में मोटरों का उपयोग होता है। इनकी गतियों का नियंत्रण परिपथ संयोजों से होता है, जो क्षेत्र सामर्थ्य और मोटर में पहुँची वोल्टता को बदलते रहते हैं। प्रत्यावर्ती धारा से चलनेवाले इंजन, जो भारी कार्य के लिए काम में लाए जाते हैं, एक प्रावस्थीय (single phase) विद्युत् का बहुप्रावस्थीय (polyphases) विद्युत् में बदलने के लिए प्रावस्था परिवर्तक का उपयोग होता है। कर्षण मोटरें लपेटे आर्मेंचर के साथ त्रिप्रावस्थीय प्रेरण की होती हैं।
प्रत्यावर्ती धारा के एक दूसरे प्रकार के रेल इंजन में प्रत्यावर्ती धारा को दिष्ट धारा में परिणत करने के लिए परिवर्तक प्रयुक्त होता है। कर्षण मोटर और नियंत्रक वैसे ही होते हैं जैसे दिष्ट धारावाले रेल इंजन में होते हैं। इसमें कर्षण मोटर और नियंत्रक ऐसे होते हैं जो दोनों प्रकार की धाराओं पर कार्य कर सकते हैं। मुख्य लाइनों पर चलनेवाले कुछ रेल इंजनों में फोटोग्राफ युक्तियाँ लगी रहती हैं।
ब्रेक
विद्युत् इंजनों में वायु-ब्रेक कार्य करते हैं। उतराई में पुनर्योजी ब्रेक साथ में लगाए जाते हैं। उपयुक्त विचयुक्ति द्वारा कर्षण मोटरों से काम लिया जाता है। वह रेलगाड़ी के संवेग (momentum) को विद्युत् ऊर्जा में बदलता है, जो फिर परिषण लाइन में पहुँच जाती है। आधुनिक विशाल विद्युत् इंजन के उदाहरण दोएकक जनरल इलेक्ट्रिक इंजन हैं, जो वरजीनियन रेलवे में पहाड़ पर ढुलाई के काम आते हैं।
रेल का डीज़ल विद्युत् इंजन
२०वीं शती के आरंभ में विद्युत् इंजन में कुछ त्रुटियाँ देखी गईं, अत: डीज़ल विद्युत् रेल के इंजन से संबंधित खोजें शुरु हुईं। अनेक प्रयोगों और परीक्षणों के फलस्वरूप ऐसे इंजन बने जिनमें डीज़ल इंजन और विद्युत् जनित्र लगे रहते हैं। ये भाप इंजन से अधिक भार ढो सकते हैं। ऐसे रेल इंजनों बड़ी शीघ्रता से भाप के इंजन का स्थान ले लिया। ऐसे रेल इंजनों की तापीय दक्षता रेल के भाप इंजन से चौगुनी होती है और ईधंन का खर्च भी कम पड़ता है। भाप के रेल इंजन को बार बार देखभाल की आवश्यकता पड़ती है, जब कि डीज़ल रेल इंजन बिना देखभाल के अधिक समय तक काम दे सकता है। इस इंजन में धुँआ नहीं होता, अत: अधिक सफाई रहती है। यात्रियों के कपड़े गंदे नहीं होते एवं आँखों में कोयले के टुकड़े पड़ने की संभावना नहीं रती। जब चाहे तब उन्हें चलाया, या बंद किया जा सकता है, जब कि भाप-इंजन को चलाने के लिए पर्याप्त समय आवश्यक होता है। भाप-इंजन की अपेक्षा इसमें खर्च भी कम पड़ता है। इसमें ब्रेक भी अधिक सरलता से लगते हैं।
डीज़ल विद्युत् इंजन तीन उद्देश्य से बनते हैं : १. शंटिंग के लिए, २. सवारी गाड़ी के लिए और ३. मालगाड़ी के लिए। सवारी और मालगाड़ी के इंजनों में कोई स्पष्ट विभेद नहीं है, सिवाय इसके कि ठंढे देशों की सवारी गाड़ी के इंजन में गाड़ी के इंजन में गाड़ी को गरम करने के लिए एक स्वचालित भाप जनित्र लगा रहता है। इंजन में एक कार होती है, जिसमें डीज़ल इंजन और शक्ति संयंत्र का विद्युत् जनित्र भाग बैठाया जाता है। एक चलता गियर रहता है, जिसपर दो, या तीन धुरीवाले दो ट्रक होते हैं। प्रत्येक चालक धुरी में अपने विद्युत् कर्षण मोटर होती है। तीन धुरीवाले ट्रकों के बीच में एक निष्कर्मी धुरी होती है। इनका उपयोग विशेषावस्थाओं में ही किया जाता है।
रेल का गैस-टरबाइन-विद्युत्-इंजन
जब प्रत्यागामी भापइंजन का ्ह्रास होने लगा, तब इंजनों की शक्ति के लिए गैस-टरबाइन के उपयोग की संभावना पर खोजें शुरू हुई। गैस-टरबाइन का विकास १९०३ ई. से शुरू हुआ और रेलों के लिए भाप का टरबाइन लाभप्रद पाया गया। यदि ईधंन तेल का मूल्य कम हो तो ईधंन के खर्च में कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता।
भारत में रेल के इंजन के निर्माण का विकास
भारत में प्रथम रेल की लाइन १६ अप्रैल, १८५३ को खोली गई। धीरे धीरे सारे देश में रेल की पटरियों का जाल सा बिछ गया। रेल के इंजन विदेशों से, विशेषकर इंग्लैंड से ही, मँगाए जाते रहे। अजमेर और जमालपुर में कुछ जरूरी अवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मीटर गेज़ के लिए लगभग ७०० इंजन देश में ही बनाए गए। सन् १९२१ में जमशेदपुर में रेल इंजन बनाने के लिए सरकारी प्रोत्साहन से पेनिनसुलर में रेल इंजन बनाने के लिए सरकारी प्रोत्साहन से पेनिनसुलर लोकोमोटिव कंपनी खोली गई, पर सन् १९२४ में ही इस कंपनी का काम बंद करना पड़ा, क्योंकि उसे आवश्यक आर्थिक संरक्षण न मिला। सन् १९३९ में एक कमेटी यह जाँच करने के लिए बैठाई गई कि कांचेरापारा की मरम्मत करनेवाले वर्कशापों में इंजन बनाए जाएँ या नहीं पर दूसरे विश्वयुद्ध के जारी हो जाने के कारण कुछ काम न हो सका। सन् १९४५ में भारत सरकार ने पेनिनसुलर लोकोमोटिव कंपनी को टाटा लोकोमोटिव ऐंड इंजीनियरिंग कंपनी (TELCO), जमशेदपुर, के हवाले कर दिया और उसे रेल इंजन तथा बॉयलर बनाने का काम सौंपा।
मुख्य आकँड़े
यह रेल इंजन १८३० टन की मालगाड़ियों का समतल पर ७५ किमी., या ४६.५ मील, प्रति घंटा तथा १:१०० ढाल पर ३२ किमी., या २० मील प्रति घंटा की गति से परिचालन करेंगे।
कुल भार ८५.२ टन संतत मूल्यांकन पर गति ३३ किमी.
धुरी पर बोझ २१.३ टन या २०.५ मील प्रति घंटा
संतत मूल्यांकन २,९०० अश्व महत्तम गति ७५ किमी., या ४६.५ मील प्रति घंटा
चित्र:Formula-66.gif चित्र:Formula-65.gif
टीका टिप्पणी और संदर्भ