महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-18

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नवम अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योगपर्व: नवम अध्याय: श्लोक 1- 33 का हिन्दी अनुवाद

इन्द्र के द्वारा त्रिशिका वध, वृत्रासुर की उतपत्तिउसके साथ इन्द्र का युद्ध तथा देवताओ की पराजय्

युधिष्ठिर ने पूछा-रातेन्द्र ! पत्नी सहित महामना इन्द्र ने कैसे अत्यन्त भयंकर दुःख प्राप्त किया था 1 वह मै जानना चाहता हूँ।

शल्य ने कहा-भरतवंशी नरेश ! यह पूर्वकाल में घटित पुरातन इतिहास है । पत्नी सहित इन्द्र ने जिस प्रकार महान दुखः प्राप्त किया, था वह बताता हूँ, सुनो। तवष्ठा नाम से प्रसिद्ध एक प्रजापति थे, जो देवताओं में श्रेष्ठ और महान तपस्वी माने जाते थे । कहते है, उन्होंने इन्द्र के प्रति द्रोहबुद्धि हो जाने के कारण ही तीन सिर बाला पुत्र उत्पन्न किया। उस महातेजस्वी बालक का नाम था विश्वरूप । वह सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि के समान तेजस्वी एवं भयंकर अपने उन तीनों मुखो द्वारा इन्द्र का स्थान पाने की प्रार्थना करता था। वह अपने एक मुख से वेदों का स्वाध्याय करता, दूसरे से सुरा पीता और तीसरे से सम्पूर्ण दिशाओं की ओर इस प्रकार देखता था, मानो उन्हें पी जायेगा। शत्रुदमन ! तवष्टा का वह पुत्र कोमल स्वभाव वाला, तपस्वी, जितेन्द्रिय तथा धर्म और तपस्या के लिये सदा उद्यत रहने वाला था । उसका बड़ा मारी तीव्र तप दूसरो के लिये अत्यन्त दुष्कर था। उस अमित तेजस्वी बालक का तपोबल तथा सत्य देख कर इन्द्र को बडा दुःख हुआ । वे सोचने लगे, कही यह इन्द्र न हो जाय। क्या उपाय किया जाय जिससे यह भोगो में आसक्त हो जाय और भारी तपस्यायें प्रवृत्‍त न हो क्योंकि यह वृद्धि को प्राप्त हुआ त्रिशिरा तीनों लोको को अपना ग्रास बना लेगा। भरतश्रेष्ठ ! इस तरह बहुत सोच-विचार करके बुद्धि मान् इन्द्र ने त्वष्टा पुत्र को ळुभाने के लिये अप्सराओं को आज्ञा दी। अपस्राओ ! जिस प्रकार त्रिशिरा कामयोगो में अत्यन्त आसक्त हो जाय, शीघ्र वैसा ही यत्न करों। जाओ, उसे लुभाओ, विलम्ब न करो। सुन्दरियो ! तुम सब श्रृगार के अनुरूप वेष धारण करके मनोहर हारो से विभूषित, हाव-भाव से संयुक्त तथा सौन्दर्य से सुशोभित हो विश्वरूप का लुभावों । तुम्हारा कल्याण हो, मेरे भय को शान्त करो । पराग्नाओं ! मै अपने आपको अश्वस्थचित देख रहा हूँ, अतः अबलाओ ! तुम मेरे इस अत्यन्त घोर भय का शीघ्र निवारण करो। अप्सराये बोली-शक ! बलनिदुषदन ! हमलोग विश्वरूप् को लुभाने के लिये ऐसा यत्न करेंगी, जिससे उनकी ओर से कोई भय नहीं प्राप्त होगा। देव ! जो तपोनिध विश्वरूप अपने दोनों नेत्रो से सबको दग्ध करते हुए से विराज रहे है, उन्हें वश में करने तथा आपको भय को दूर हटाने के लिये हम पूर्ण प्रयत्न करेंगी।

शल्य बोले-राजन! इन्द्र की आज्ञा पाकर वे सब अप्सराएँ त्रिशिरा के समीप गयी । उन सुन्दरियोंने भाँति-भाँति के हाव-भावों द्वारा उन्हें लुभाने का प्रयत्न किया तथा प्रतिदिन विश्वरूप् अपने अगों के सौन्दर्य का दर्शन कराया । तथापि वे महातपस्वी महर्षि उन सबको देखते हुए हर्ष आदि विकारों को नहीं प्राप्त हुए;अपितु वे इन्द्रियों वश में करके पूर्वसागर के समान शान्तभाव से बैठ रहे। वे सब अप्सराएँ ( त्रिशिरा को विचलित करने का ) पूरा प्रयत्न करके पुनः देवराज इन्द्र की सेवा में उपस्थित हुई और हाथ जोडकर बोली-प्रभो ! वे त्रिशिरा बउे दुर्घर्ष तपस्वी है, उन्‍हें धैर्य से विचलित नहीं किया जा सकता । महासागर ! अब आपको जो कुछ करना हो, उसे कीजिय। यधिष्ठर ! तब परम बुद्धिमान इन्द्र ने अप्सराओं का आदर-सत्कार करके उन्हें विदा कर दिया वे त्रिशिरा के वध का उपाय सोचने लगे। प्रतापी वीर बुद्धिमान् देवराज इन्द्र चुपचाप सोचते हुए त्रिशिरा के विषय में एक निश्चय पर पहुँच गये। ( उन्होंने सोचा)आज मै त्रिशिरा पर वज्र का प्रहार करूँगा जिससे वह तत्काल नष्ट हो जायेगा । बलवान् पुरूष को दर्बल होने पर भी बढ़ते हुए अपने शत्रु की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। शास्त्रयुक्त बुद्धि से त्रिशिरा के वध का दृढ़ निश्चय करके क्रोध में भरे हुए इन्द्र ने अग्नि के समान तेजस्वी, धोर एवं भयेरि वज्र को त्रिशिरा की ओर चला दिया । उस वज्र की गहरी चोट खाकर त्रिशिरा मरका पृथ्वी पर गिर पडे़, मानो वज्र के अधात से टुटा हुआ पर्वत का शिखर भूतल पर पड़ा हो। त्रिशिरा को वज्र के प्रहार से प्राणशून्य होकर पर्वत की भाँति पृथ्वी पर पड़ा देखकर भी देवराज इन्द्र को शान्ति नहीं मिली । वे उनके तेज से संतत हो रहे थे। क्योंकि मारे जाने पर भी अपने तेज से उद्दीप्त होकर जीवित-से दिखायी देते थे । युद्ध में मारे हुए त्रिशिरा के तीनों सिर जीते-जागते से अöुत प्रतीत हो रहे थे। इससे अत्यन्त भयभीत हो इन्द्र भारी सोच-विचार में पड़ गये । इसी समय एक बढ़ई कंधे पर कुल्हाणी लिये उधर आ निकला। महाराज ! वह बढई उसी वन में आया, जहाँ त्रिशिरा को मार गिराया गया था । डरे हुए शचिपति इन्द्र ने वहाँ अपना काम करते हुए बढई को देखा । देखते ही पाकशसन इन्द्र ने तुरेत उससे कहा-बढ़ई ! तू शीघ्र इस शव के तीनों मस्तकों के टुकडें-टुकडें कर दे । मेरी इस आज्ञा का पालन कर। बढ़ई ने कहा-इसके कंधे तो बड़े भारी और विशाल है । मेरी यह कुल्हाडी इस पर काम नहीं देंगी और अस प्रकार किसी प्राणी की हत्या करना तो साधु पुरुषों-द्वारा निन्दत पापकर्म है, अतः मै इसे नहीं कर सकूँगा। इन्द्र ने कहां--बढई ! तू भय न कर । शीघ्र मेरी इस आज्ञा का पालन कर । मेरे प्रसाद से तेरी यह कुल्हाडी वज्र के समान हो जायेगी। बढ़ई ने पूछा-आज इस प्रकार भयानक कर्म करने वाले आप कोन है, यह कैस समझूँ १ मै आपका परिचय सुनना चाहता हूँ । यह यथार्थ रूप् से बताइय।

इन्द्र ने कहा--बढई ! तुझे मालूम होना चाहिये कि मै देवराज इन्द्र हूँ । मैने जो कुछ कहा है, उसे शीघ्र पूरा कर । इस विषय में कुछ विचार न कर।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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