महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 156 श्लोक 1-20

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षट्पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: षट्पञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

सोमदत और सात्यकिका युद्ध, सोमदत की पराजय, घटोत्कच और अश्‍वत्‍थामा का युद्ध और अश्‍वत्‍थामा द्वारा घटोत्कच के पुत्र का, एक अक्षौहिणी राक्षस-सेना का तथा द्रुपदपुत्रों का वध एवं पाण्डव-सेना की पराजय

संजय कहते हैं- राजन् ! आमरण उपवासका व्रत लेकर बैठे हुए अपने पुत्र भूरिश्रवा के सात्यकिद्वारा मारे जाने पर उस समय सोमदत को बडा क्रोध हुआ। उन्होंने सात्यकि से इस प्रकार कहा-। ’सात्वत ! पूर्वकाल में महात्माओं तथा देवताओं ने जिस क्षत्रियधर्म का साक्षात्कार किया है, उसे छोडकर तुम लुटेरो के धर्म में कैसे प्रवृत हो गये ? ’सात्यके ! जो युद्ध से विमुख एवं दीन होकर हथियार डाल चुका हो, उसपर रणभूमि में क्षत्रिय धर्मपरायण विद्वान् पुरूष कैसे प्रहार कर सकता है। ’सात्वत ! वृष्णिवंशियों में दो ही महारथी युद्ध के लिये विख्यात हैं। एक तो महाबाहू प्रद्युम्न और दूसरे तुम ।। ’अर्जुन ने जिसकी बांह काट डाली थी तथा जो आमरण अनशन का निश्‍चय लेकर बैठा था, उस मेरे पुत्रपर तुमने वैसा पतनकारक क्रुर प्रहार क्यों किया ? ’ओ दुराचारी मूर्ख ! डस पापकर्म का फल तुम इस युद्धस्थल में ही प्राप्त करो। आज मैं पराक्रम करके एक बाण से तुम्हारा सिर काट डालूंगा। ’वृष्णिकुलकलंक सात्वत ! मैं अपने दोनों पुत्रों की तथा यज्ञ और पुण्यकर्मो की शपथ खाकर कहता हूं कि यदि आज रात्रि बीतने के पहले ही कुन्तीपुत्र अर्जुन से अरक्षित रहनेपर अपने को वीर मानने वाले तुम्हें पुत्रों और भाइयों सहित न मार डालूं तो घोर नरक में पडूं ’। ऐसा कहकर महाबली सोमदत ने अत्यन्त कुपित हो उच्चस्वर से शक्ख बजाया और सिंहनाद किया। तब कमल के समान नेत्र और सिंह के सद्दश दांतवाले दुर्घर्ष वीर सात्यकि भी अत्यन्त कुपित हो सोमदत से इस प्रकार बोले-। ’कौरव ! यदि सारी सेना से सुरक्षित होकर तुम मेरे साथ युद्ध करोगे तो भी तुम्हारे कारण मुझे कोई व्यथा नहीं होगी। ’मैं सदा क्षत्रियोचित आचार में स्थित हूं। युद्ध ही जिसका सार है तथा दुष्ट पुरूष ही जिसे आदर देते हैं, ऐसे कटुवाक्य से तुम मुझे डरा नहीं सकते। ’नरेश्रवर ! यदि मेरे साथ तुम्हारी युद्ध करने की इच्छा हैं तो निर्दयतापूर्वक पैने बाणों द्वारा मुझपर प्रहार करो। मैं भी तुमपर प्रहार करूंगा। ’महाराज ! तुम्हारा वीर महारथी पुत्र भूरिश्रवा मारा गया। भाई के दुःख से दुखी होकर शल भी वीरगति को प्राप्त हुआ है। ’अब पुत्रों और बान्धवों सहित तुम्हें भी मार डालूंगा । तुम कुरूकुल के महारथी वीर हो। इस समय रणभूमि में सावधान होकर खडे रहो। ’जिन महाराज युधिष्ठिर में दान, दम, शौच, अहिंसा, लज्जा, धृति और क्षमा आदि सारे सद्रुण अविनश्ररभाव से सदा विद्यमान रहते हैं, अपनी ध्वजा में मृदग का चिह धारण करनेवाले उन्हीं धर्मराज के तेज से तुम पहले ही मर चुके हो। अतः कर्ण और शकुनिके साथ ही इस युद्धस्थल में तुम विनाश को प्राप्त होओगे । ’मैं श्रीकृष्ण के चरणों तथा अपने इष्टापूर्त कर्मो की शपथ खाकर कहता हूं कि यदि मैं युद्ध में क्रुद्ध होकर तुम-जैसे पापी को पुत्रों सहित न मार डालूं तो मुझे उतम गति न मिले। ’यदि तुम उपर्युक्त बातें कहकर भी युद्ध छोडकर भाग जाओगे तभी मेरे हाथ से छुटकारा पा सकोगे ।’ परस्पर ऐसा कहकर क्रोध से लाल आंखे किये उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरोंने एक दूसरे पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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