महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 149 श्लोक 20-42

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एकोनपंचाशदधिकशततम (149) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: एकोनपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-42 का हिन्दी अनुवाद

ऋषीकेष ! आप आदि-अन्त से रहित विश्‍व-विधाता और अविकारी देवता हैं। जो आपके भक्त हैं, वे बडे़-बडे़ संकटों से पार हो जाते हैं। आप परम पुरातन पुरूष हैं परसे भी पर हैं। आप परमेश्‍वर की शरण लेने वाले पुरूष को परम ऐश्‍वर्य की प्राप्ति होती है। चारों वेद जिनके यश का गान करते हैं, जो सम्पूर्ण वेदों में गाये जाते हैं, उन महात्मा श्रीकृष्ण की शरण लेकर मैं सर्वोतम ऐश्‍वर्य (कल्याण) प्राप्त करूंगा। पुरूषोतम ! आप परमेश्‍वर हैं। पशु, पक्षी तथा मनुष्यों के भी ईश्‍वर हैं। ‘परमेश्‍वर’ कहे जाने वाले इन्द्रादि लोकपालों के भी स्वामी हैं। सर्वेश्‍वर ! जो सबके ईश्‍वर हैं, उनके भी आप ही ईश्‍वर है। आपको नमस्कार है। विशाल नेत्रों वाले माधव ! आप ईश्‍वरों के भी ईश्‍वर और शासक हैं। प्रभो ! आपका अभ्युदय हो। सर्वात्मन् ! आप ही सबके उत्पत्ति और प्रलय के कारण हैं। जो अर्जुन के मित्र, अर्जुन के हितैषी और अर्जुन के रक्षक हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की शरण लेकर मनुष्य सुखी होता है। निष्पाप श्रीकृष्ण ! प्राचीनकाल के महर्षि मार्कण्डेय आपके चरित्र को जानते हैं। उन मुनिश्रेष्ठ ने पहले (वनवास के समय) आपके प्रभाव और महात्म्य का मुझसे वर्णन किया था। असित, देवल, महातपस्वी नारद तथा मेरे पितामह व्यास ने आपको ही सर्वोतम विधि बताया है। आप ही तेज, आप ही परबह्म, आप ही सत्य, आप ही महान तप, आप ही श्रेय, आप ही उत्‍तम यश और आप ही जगत के कारण हैं। आपने ही इस सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगत के सृष्टि की हैं आपने ही इस सम्‍पूर्ण स्‍थावर जंगम की सृष्टि की है और प्रलयकाल आने पर यह पुनः आप ही में लीन हो जाता है। जगत्यते ! वेदवेता पुरूष आपको आदि-अन्त से रहित, दिव्य-स्वरूप, विश्‍वेश्रवर, धाता, अजन्मा, अव्यक्त, भूतात्मा, महात्मा, अनन्त तथा विश्वतोमुख आदि नामों से पुकारते हैं। आपका रहस्य गूढ़ है। आप सबके आदि कारण और इस जगत के स्वामी हैं। आप ही परमदेव, नारायण, परमात्मा और ईश्‍वर हैं। ज्ञानस्वरूप श्रीहरि तथा मुमुक्षुओं के परम आश्रय भगवान विष्णु भी आप ही हैं। आपके यथार्थ स्वरूप को देवता भी नहीं जानते हैं। आप ही परम पुराण-पुरूष तथा पुराणों से भी परे हैं। आपके ऐसे-ऐसे गुणों तथा भूत, वर्तमान एवं भविष्य-काल में होने वाले कर्मो की गणना करने वाला इस भूलोक में या स्वर्ग में भी कोई नहीं है। जैसे इन्द्र देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार हम सब लोग आपके द्वारा सर्वंथा रक्षणीय हैं। हमें आप सर्वगुण सम्पन्‍न सुहृदय के रूप में प्राप्त हुए हैं। धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर महायशस्वी भगवान जनार्दन ने उनके कथन के अनुरूप इस प्रकार उत्‍तर दिया- ।। धर्मराज ! आपकी उग्र तपस्या, परम धर्म, साधुता तथा सरलता से ही पापी जयद्रथ मारा गया है। पुरूषसिंह ! आपने जो निरन्तर शुभ-चिन्तन किया है, उसी से सुरक्षित हो अर्जुन ने सहस्त्रों योद्धाओं का संहार करके जयद्रथ का वध किया है। अस्त्रों के ज्ञान, बाहुबल, स्थिरता, शीघ्रता और अमोघ-बुद्धिता आदि गुणों में कहीं कोई भी कुन्तीकुमार अर्जुन की समता करने वाला नहीं है। भरतश्रेष्ठ ! इसीलिये आज आपके इस छोटे भाई अर्जुन ने संग्राम में शत्रुसेना का संहार करके सिंधुराज का सिर काट लिया है। प्रजानाथ ! तब धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अर्जुन को हृदय से लगा लिया और उन का मुंह पोछकर उन्हें आश्‍वासन देते हुए कहा। फाल्गुन ! आज तुमने बड़ा भारी कर्म कर दिखाया। इसका सम्पादन करना अथवा इसके भार को सह लेना इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी असम्भव था। शत्रुसूदन ! आज तुम अपने शत्रु को मारकर प्रतिज्ञा के भार से मुक्त हो गये। यह सौभाग्य की बात है। हर्ष का विषय है कि तुमने जयद्रथ को मारकर अपनी यह प्रतिज्ञा सत्य कर दिखायी।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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