महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 193 श्लोक 57-70
त्रिनवत्यधिकशततम (193) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्त्रमोक्ष पर्व )
आचार्य ! तुम जिसके लिये हथियार उठाते हो और जिसका मुंह देखकर जीते हो, वह तुम्हारा सदाका प्यारा पुत्र अश्वत्थामा पृथ्वी पर मार गिराया गया है। जैसे वन में सिंह का बच्चा सोता है, उसी प्रकार वह रणभूमि में मरा पड़ा है। असत्य बोलने के दोषों को जानते हुए भी राजा युधिष्ठिर ने द्विज श्रेष्ठ द्रोण से वैसी बात कह दी। फिर वे अस्फुट स्वर में बोले - वास्तव में इस नाम का हाथी मारा गया। इस प्रकार युद्ध में तुम्हारे मारे जाने की बात सुनकर वे शोकाग्नि के ताप से संतप्त हो उठे और अपने दिव्यास्त्रों का प्रयोग बंद करके उन्होने पहले के समान युद्ध करना छोड़ दिया उन्हें अत्यन्त उद्विग्न, शोकाकुल और अचेत हुआ देख पांचाल राज का कू्र कर्मा पुत्र धृष्टधुम्न उनकी ओर दौड़ा। लोक तत्व के ज्ञान में निपुण आचार्य अपनी दैवहित मृत्यु रूप धृष्टधुम्न को सामने देख दिव्यास्त्रों का परित्याग करके आमरण उपवास का नियम ले रणभूमि बैठ गये। तब उस द्रुपद पुत्र ने समस्त वीरों के पुकार-पुकार कर मना करने पर भी उसकी बातें अनसुनी करके बायें हाथ से आचार्य केश पकड़ लिये और दाहिने हाथ से उनका सिर काट लिया। वे सब वीर चारों ओर से यही कह रहे थे कि न मारो, न मारो। अर्जुन भी यही कहते हुए अपने रथ से उतरकर उसकी और दौड़ पड़े। वे धर्म के ज्ञाता है, अत: अपनी एक बांह उठाकर बड़ी उतावली के साथ बारंबार यह कहने लगे कि आचार्य को जीते-जी ले आओ, मारो मत। नरश्रेष्ठ ! इस प्रकार कौरवों तथा अर्जुन के रोकने पर भी उस नृशंस ने तुम्हारी पिताजी की हत्या कर ही डाली। अनघ ! इस प्रकार तुम्हारे पिता के मारे जाने पर समस्त सैनिक भय से पीड़ित होकर भाग चले हैं और हम लोग उत्साह-शून्य होकर लौटे आ रहे हैं।
संजय कहते हैं – राजन ! युद्ध में इस प्रकार पिता के मारे जाने का वृतान्त सुनकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा पैरों से ठुकराये हुए सर्प के समान अत्यन्त कुपित हो उठा। माननीय नरेश ! जैसे अग्नि देव सूखे काठ की बहुत बड़ी राशि पाकर प्रचण्ड रूप से प्रज्वलित हो उठते हैं, उसी प्रकार रण भूमि में अश्वत्थामा अत्यन्त क्रोध से जलने लगा। उसने हाथ से हाथ मलकर दांतो से दांत पीसे और फुफकारते हुए सर्प के समान वह लंबी सांसे खींचने लगा, उस समय उसकी आंखे लाल हो गयी थी।
इस प्रकार श्री महाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत नारायणास्त्रमोक्ष पर्व में अश्वत्थमाका क्रोध विषयक एक सौ तिरानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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