महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 196 श्लोक 18-36
षण्णवत्यधिकशततम (196) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्त्रमोक्ष पर्व )
कितने ही सैनिक अधिक चोट खाये हुए अपने पुत्र, पिता, मित्र और भाइयेां को रथ पर चढ़ाकर तथा उनके कवच खोलकर उनके घावों को जल से भिगो रहे थे। आचार्य द्रोण के मारे जाने पर वैसी द्रुवस्था में पकड़कर जो सेना भाग गयी थी, उसे फिर किसने लौटाया है ? यदि तुम जानते हो तो मुझे बताओ। रथ के पहियों की घर्घराहट से मिला हुआ हिनहिनाते हुए घोड़ों और गर्जते हुए गजराजों का महान शब्द सुनायी पड़ता है। कौरव सेनारूपी समुद्र में यह कोलाहल अत्यन्त तीव्र वेग से होने लगा है और बारंबार बढ़ता जा रहा है, जो मेरे सैनिकों को कम्पित किये देता है। यह जो महाभयंकर रोमांचकारी शब्द सुनायी देता है, यह इन्द्र सहित तीनों लोकों को ग्रस लेगा, ऐसा मुझे जान पड़ता है। मैं समझता हूं, यह भंयकर शब्द वज्रधारी इन्द्र की गर्जना है । द्रोणाचार्य के मारे जाने पर कौरवों की सहायता के लिये साक्षात् इन्द्र आ रहे हैं, यह स्पष्ट जान पड़ता है ।। धनंजय ! यह अत्यंत भीषण और भारी सिंहनाद सुनकर हमारे श्रेष्ठ रथी भी उद्विग्न हो उठे और इनके रोंगटे खड़े हो गये हैं। देवराज इन्द्र के समान यह कौन महारथी भागे हुए कौरवों को खड़ा करके उन्हें पुन: युद्ध के लिये रणभूमि में लौटा रहा है?
संजय कहते हैं – राजन ! जिसके विषय में आपको यह संदेह होता है कि शस्त्रों का परित्याग कर देनेवाले गुरूदेव द्रोणाचार्य के मारे जाने पर यह कौन वीर कौरव-कैनिकों को दृढ़तापूर्वक स्थापित करके सिंहनाद कर रहा है तथा जिसके बल और पराक्रम का आश्रय लेकर पराक्रमी कौरव अपने को भयंकर कर्म करने के लिये उधत करके शंख ध्वनि कर रहे है, जो महाबाहु मतवाले हाथी के समान मस्तानी चाल से चलने वाला और लज्जाशील है, जो बल में इन्द्र और विष्णु के समान, क्रोध में यमराज के सदृश तथा बुद्धि में बृहस्पति के तुल्य है, जो नीतिमान्, महारथी, उग्र कर्म करने में समर्थ तथा कौरवों को अभयदान देने वाला है, उस वीर का परिचय देता हूं, सुनिये। जिसके जन्म लेने पर आचार्य द्रोण ने परम सुयोग्य ब्राहृाणों को एक सहस्त्र गौएं दान की थी, वही अश्वत्थामा यह गर्जना कर रहा है। पाण्डुननन्दन ! जिस वीर ने जन्म लेते ही उच्चै: श्रवा अश्व के समान हिनहिनाकर पृथ्वी तथा तीनों लोकों को कम्पित कर दिया था और उस शब्द को सुनकर किसी अदृश्य प्राणी ने उस समय उसका नाम अश्वत्थामा रख दिया था, चह वही शूरवीर अश्वत्थामा सिंहनाद कर रहा है। द्रपदकुमार धृष्टधुम्न ने जिन पर आक्रमण करके अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म के द्वारा जिन्हें अनाथ के समान मार डाला था, उन्हीं का यह रक्षक या सहायक उठ खड़ा हुआ है। पांचालराज कुमार ने जो मेरे गुरूदेव का केश पकड़कर खींचा था, उसे अपने पुरूषार्थ को जानने वाला अश्वत्थामा कभी क्षमा नहीं कर सकता। आपने धर्मज्ञ होते हुए भी राज्य के लोभ से झूठ बोलकर जो अपने गुरू को धोखा दिया, वह महान पाप किया है ।। अत: छिपकर बाली का वध करने के कारण जैसे श्रीरामचन्द्र जी को अपयश मिला, उसी प्रकार झूठ बोलकर द्रोणाचार्य को मरवा देने के कारण चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों में आपकी अकीर्ति चिरस्थायिनी हो जायेगी। आचार्य ने यह समझकर आप पर विश्वास किया था कि पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर सब धर्मों के ज्ञाता और मेरे शिष्य हैं । ये कभी झूठ नहीं बोलते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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