महाभारत वन पर्व अध्याय 315 श्लोक 1-18

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पन्चदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः (315) अध्याय: वन पर्व (आरणेयपर्व)

महाभारत: वन पर्व: पन्चदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद



अज्ञातवास के लिये अनुमति लेते समय शोकाकुल हुए युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य का समझाना, भेमसेन का उत्साह देना तथा आश्रम से दूर जाकर पाण्डवों का परस्पर परामर्श के लिये बैठना वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! धर्मराज की अनुमति पाकर सत्यपराक्रमी पाण्डव तेरहवें वर्ष में छिपकर अज्ञातवास करने की इच्छा से एकत्र हो विचार-विमर्श के लिये आस-पास बैठे। वे सब-के-सब उत्तम व्रत का पालन करने वाले और विद्वान थे। वनवास के समय जो तपस्वी ब्राह्मण पाण्डवों के प्रति स्नेह होने के कारण उनके साथ रहते थे, उनसे अज्ञातवास के हेतु आज्ञा लेने के लिये व्रतधारी पाण्डव हाथ जोड़कर खड़े हो इस प्रकार बोले- ‘मुनिवरों ! धृतराष्ट्र के पुत्रों ने जिस प्रकार छल करके हमारा राज्य हर लिया और हम पर बारेबार अत्याचार किया, वह सब आप लोगों को विदित ही है । 1838 हम लोग कष्टदायक वन में बारह वर्षों तक रह लिये। अब अन्तिम तेरहवाँ वर्ष हमारे अज्ञातवास का समय है। ‘अतः इस वर्ष हम छिपकर रहना चाहते हैं। इसके लिये आप लोग हमें आज्ञा दें। दुष्टात्मा दुर्योधन, कर्ण और शकुनि हमसे अत्यन्त वैर रखते हैं। वे स्वयं तो हमारा पता लगाने को उद्यत हैं ही, उन्होंने गुप्तचर भी लगा रखे हैं। अतः यदि उन्हें हमारे रहने का पता चल जायेगा, तो वे हमसे सम्बन्ध रखने वाले पुरजनों तथा स्वजनों के साथ भी विषम (बुरा) बर्ताव कर सकते है। ‘क्या हमारे सामने फिर कभी ऐसा अवसर आयेगा, जब कि हम सब भाई ब्राह्मणों के साथ अपने राष्ट्र में रहेंगे- अपने राज्य पर प्रतिष्ठित होंगे’। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! ऐसा कहकर पवित्र अन्तःकरण वाले धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिर दुःख और शोक से आतुर होकर मूर्छित हो गये। उनके नेखें से आँसुओ की धारा बह रही थी और कण्ठ अवरुद्ध हो गया था। उस समय उनके भाइयों सहित समस्त ब्राह्मणों ने उन्हें आश्वासन दिया। तत्पश्चात् महर्षि धौम्य ने राजा युधिष्ठिर से यह गम्भीर अर्थयुक्त वचन कहा- ‘राजन् ! आप विद्वान्, मन को वश में रखने वाले, सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय हैं। आप जैसे मनुष्य किसी भी आपत्ति में मोहित नहीं होते अथज्र्ञत् अपना धैर्य और विवेक नहीं खोते हैं । ‘महामना देवताओं को भी जहाँ-तहाँ शत्रुओं के निग्रह के लिये अनेक बार छिपकर रहना और विपत्तियों को भोगना पड़ा है ।‘देवराज इन्द्र शत्रुओं का दमन करने के लिये गुप्तरूप से निषधदेश में गये और गिरिप्रस्थआश्रम में छिपे रहकर उन्होंने अपना कार्य सिद्ध किया। ‘भगवान् विष्णु भी दैत्यों का वध करने के लिये हयग्रीव स्वरूप धारण करके अज्ञातभाव से अदिति के गर्भ में दीर्धकाल तक रहे हैं।‘उन्होंने ही ब्राह्मण वेष में वामनरूप धारण करके अपने तीन पगों क्षरा जिस प्रकार छिपे तोरपर राजा बलि का राज्य हर लिया था, वह सब तो तुमने सुना ही होगा। 1839 ‘अग्नि ने जल में प्रवेश करके वहीं छिपे रहकर देवताओं का कार्य जिस प्रकार सिद्ध किया, वह सब कुद भी तुम सुन चुके हो। ‘धर्मज्ञ ! भगवान् श्रीहरि ने शत्रुओं के विनाश के लिये छिपे तौर पर इन्द्र के वज्र में प्रवेश करके जो कार्य किया, वह भी तुम्हारे कानों में पड़ा होगा। ‘तात ! निष्पाप नरेश ! ब्रह्मर्षि और्व ने (माता के) ऊरु में गुप्तस्प से निवास करते हुए जो देवकार्य सिद्ध किया था, वह भी तुम्हारे सुनने में आया ही होगा।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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