महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 94-121

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पन्चाशीतितमो (85) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: पन्चाशीतितमो अध्याय: श्लोक 94-121 का हिन्दी अनुवाद

ये भगवानशिव ही स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी समस्त शून्य प्रदेश, राजा, सम्पूर्ण विद्याओं के अधीश्‍वर तथा तेजस्वी अग्निरूप हैं । ये ही भगवान सर्वभूतपति महादेव ब्रम्हा, शिव, रूद्र, वरूण, अग्नि, प्रजापति तथा कल्याणमय शम्भु आदि नामों से पुकारे जाते हैं । भृगुकुलभूषण ! इस प्रकार भगवान पशुपति का वह यज्ञ चलने लगा। उसमें सम्मिलित होने के लिये तप, क्रतु, उद्दीप्त व्रतवाली दीक्षा देवी, दिक्पालों सहित दिशाऐं, देवपत्‍नीयां, देवकन्नाऐं तथा देव-माताऐं भी एक साथ आयी थीं। महात्मा वरुण पशुपति के यज्ञ में आकर वे देवांगनाऐं बहुत प्रसन्न थीं। उस समय उन्हें देखकर स्‍वयम्भू ब्रह्माजी का वीर्य स्खलित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा । तब ब्रह्माजी के वीर्य से संसिक्त धूलिकणों को दोनों हाथों द्वारा भूमि से उठाकर पूषा ने उसी आग में फेंकदिया। तदनन्तर प्रज्वलित अग्नि वाले उस यज्ञ के चालू होने पर वहां ब्रह्माजी का वीर्य पुनः स्खलित हुआ । भृगुनन्दन। स्खलित होते ही उस वीर्य को स्त्रुवे में लेकर उन्होंने स्वयं ही मंत्र पढ़ते हुए घी की भांति उसका होम कर दिया। शक्तिशालीब्रह्माजी ने उस त्रिगुणात्मक वीर्य से चतुर्विध प्राणि समुदाय को जन्म दिया। उनके वीर्य का जो रजोमय अंश था, उससे जगत में तेजस प्रवृति प्रधान जंगम प्राणियों की उत्पत्ति हुई। तमोमय अंश से तामस पदार्थ- स्थावर वृक्ष आदि प्रकट हुए और जो सात्विक अंश था, राजस और कामस दोनों में अन्तर्भूत हो गया।।वह सत्त्वगुण अर्थात प्रकाश स्वरूपा बुद्वि का नित्य स्वरूप है और आकाश आदि सम्पूर्ण विश्‍व भी उस बुद्वि का कार्य होने से उसका ही स्वरूप है। अतः सम्पूर्ण भूतों में जो सत्वगुण तथा उत्तम तेज है, वह प्रजापति के उस शुक्र से ही प्रकट हुआ है। प्रभो ! ब्रह्माजी के वीर्य की जब अग्नि में आहुति दी गयी तब उससे तीन शरीरधारी पुरुष उत्पन्न हुए, जो अपने-अपने कारण जनित गुणों से सम्पन्न थे। भृगु अर्थात अग्नि की ज्वाला से उत्पन्न होने के कारण एक पुरूष का नाम ‘भृगु’ हुआ। अंगारों से प्रकट हुए दूसरे पुरुष का नाम ‘अंगिरा’ हुआ। और अंगारों के आश्रित जो स्वल्प मात्र ज्वाला या भृगु होती है उससे ‘कवि’ नामक तीसरे पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ। भृगुजी ज्वालाओं के साथ ही उत्पन्न हुऐ थे, उससे भृगु कहलाये। उसी अग्नि की मरीचियों से मरीची उत्पन्न हुए; जिनके पुत्र मारीच-कश्‍यप नाम से विख्यात हैं। तात ! अंगारों से अंगिरा और कुशों के ढेर से वालखिल्य नामक ऋषि प्रकट हुए थे। विभो ! अत्रैव्य- उन्हीं कुश समूहों से एक और ब्रह्मर्षि उत्पन्न हुए, जिन्हें लोग ‘अत्रि’ कहते हैं। भस्‍म-राशियों से ब्रह्मर्षियों द्वारा सम्मानित वैखानसों की उत्पत्ति हुई जो तपस्या, शास्त्रज्ञान और सदगुणों के अभिलाषी होते हैं। अग्नि के अश्रु से दोनों अश्विनीकुमार प्रकट हुए, जो अपनी रूप-संपत्ति के द्वारा सर्वत्र सम्मानित हैं। शेष प्रजापतिगण उनके श्रवण आदि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए। रोमकूपों से ऋषि, पसीने से छन्द और वीर्य से मन की उत्पत्ति हुई। इस कारण से शास्त्र ज्ञान सम्पन्न महर्षियों ने वेदों की प्रमाणिकता पर दृष्टि रखते हुए अग्नि को सर्वदेवमय बताया है। उग यज्ञ में जो समिधाऐं काम में ली गयीं तथा उनसे जो रस निकला वे ही सब मास, पक्ष, दिन, रात एवं मुहुर्त रूप हो गये और अग्नि को जो पित्त था वह उग्र तेज होकर प्रकट हुआ। अग्नि के तेज को लोहित कहते हैं, उस लोहित से कनक उत्पन्न हुआ। उस कनक को मैत्र जानना चाहिये तथा अग्नि से धूम से वषुओं की उत्पत्ति बताई गयी है। अग्नि की जो लपटें होती हैं, वे ही एकादश रूद्र तथा अत्यन्त तेजस्वी द्वादश आदित्य है, तथा उस यज्ञ में जो दूसरे-दूसरे अंगारे थे वे ही आकाश स्थित नक्षत्र मण्डलों में ज्योतिःपुंज के रूप में स्थित हैं। इस लोक के जो आदि सृष्टा हैं, उन ब्रह्माजी का कथन है कि अग्नि पर ब्रह्मस्वरूप है। वहीं अविनाशी पर ब्रह्म परमात्मा है, वही सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाला है। यह गोपनीय रहस्यज्ञानी पुरुष बताते हैं। तब वरुण एवं वायु रूप महादेवजी ने कहा- देवताओं। यह मेरा दिव्य यज्ञ है। मैं ही इस यज्ञ का गृहस्थ यजमान हूं। ‘आकाशचारी देवगण ! पहले जो तीन पुरुष प्रकट हुए हैं, वे भृगु, अंगिरा और कवि मेरे पुत्र हैं, इसमें संशय नहीं है। इस बात को तुम जान लो; क्योंकि इस यज्ञ का जो कुछ फल है उस पर मेरा ही अधिकार है। अग्नि बोले- ये तीनों संतानें मेरे अंगों से उत्पन्न हुई हैं और मेरे ही आश्रय में विधाता ने इनकी सृष्टि की है। अतः ये तीनों मेरे ही पुत्र हैं। वरुण रूपधारी महादेवजी का इन पर कोई अधिकार नहीं है। तदनन्तर लोक पितामह लोकगुरू ब्रह्माजी ने कहा- ‘ये सब मेरी ही संताने हैं; क्योंकि मेरे ही वीर्य की आहुति दी गयी है; जिससे इनकी उत्पत्ति हुई है।‘मैं ही यज्ञ का कर्ता और अपने वीर्य का हवन करने वाला हूं। जिसका वीर्य होता है उसको ही उसका फल मिलता है। यदि इनकी उत्पत्ति में वीर्य को ही कारण माना जाये तो निश्‍चय ही ये मेरे पुत्र हैं। इस प्रकार विवाद उपस्थित होने पर समस्त देवताओं ने ब्रह्माजी के पास जा दोनो हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उनको प्रणाम किया और कहा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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