श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 25 श्लोक 1-15

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एकादश स्कन्ध : पञ्चविंशोऽध्यायः (25)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पञ्चविंशोऽध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—पुरुषप्रवर उद्धवजी! प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग गुणों का प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियों के स्वभाव में भी भेद हो जाता है। अब मैं बतलाता हूँ कि किस गुण से कैसा-कैसा स्वभाव बनता है। तुम सावधानी से सुनो । सत्वगुण की वृत्तियाँ हैं—शम (मनःसंयम), दम (इन्द्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, सन्तोष, त्याग, विषयों के प्रति अनिच्छा, श्रद्धा, लज्जा (पाप करने में स्वाभाविक संकोच), आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि । रजोगुण की वृत्तियाँ हैं—इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असन्तोष), ऐंठ या अकड़, देवताओं से धन आदि की याचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्धादि के लिये मदजनित उत्साह, अपने यश में प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्दोग करना आदि । तमोगुण की वृत्तियाँ हैं—क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि । इस प्रकार क्रम से सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की अधिकांश वृत्तियों का पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया। अब उनके मेल से होने वाली वृत्तियों का वर्णन सुनो । उद्धवजी! ‘मैं हूँ और यह मेरा है’ इस प्रकार की बुद्धि में तीनों गुणों का मिश्रण है। जिन मन, शब्दादि विषय, इन्द्रिय और प्राणों के कारण पूर्वोक्त वृत्तियों का उदय होता है, वे सब-के-सब सात्विक, राजस और तामस हैं । जब मनुष्य धर्म, अर्थ और काम में संलग्न रहता है, तब उसे सत्वगुण से श्रद्धा, रजोगुण से रति और तमोगुण से धन की प्राप्ति होती है। यह भी गुणों का मिश्रण ही है । जिस समय मनुष्य स्कन कर्म, गृहस्थाश्रम और स्वधर्माचरण में अधिक प्रीति रखता है, उस समय भी उसमें तीनों का गुणों का मेल ही समझना चाहिये । मानसिक शान्ति और जितेन्द्रियता आदि गुणों से सत्वगुणी पुरुष की, कामना आदि से रजोगुणी पुरुष की और क्रोध-हिंसा आदि से तमोगुणी पुरुष की पहचान करे । पुरुष हो, चाहे स्त्री—जब वह निष्काम होकर अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मों द्वारा मेरी आराधना करे, तब उसे सत्वगुणी जानना चाहिये । सकामभाव से अपने कर्मों के द्वारा मेरा भजन-पूजन करने वाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रु की मृत्यु आदि के लिये मेरा भजन-पूजन करे, उसे तमोगुणी समझना चाहिये । सत्व, रज और तम—इन तीनों गुणों का कारण जीव का चित्त है। उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हीं गुणों के द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदि में आसक्त होकर बन्धन में पड़ जाता है । सत्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शान्त है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुण को दबाकर बढ़ता है, उस समय पुरुष सुख, धर्म और ज्ञान आदि का भाजन हो जाता है । रजोगुण भेदबुद्धि का कारण है। उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति। जिस समय तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य दुःख, कर्म, यश और लक्ष्मी से सम्पन्न होता है । तमोगुण का स्वरुप है अज्ञान। उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता। जब वह बढ़कर सत्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है, तब प्राणी तरह-तरह की आशाएँ करता है, शोक-मोह में पड़ जाता है, हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा-आलस्य के वशीभूत होकर पड़ रहता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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