महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 158 श्लोक 1-18
अष्टपण्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
दुर्योधन और कर्ण की बातचीत, कृपाचार्यद्वारा कर्ण को फटकारना तथा कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान
संजय उवाच संजय कहते हैं- राजन् ! पाण्डवों की उस विशाल सेना का जोर बढते देख उस असहाय मानकर दुर्योधन ने कर्णसे कहा- मित्रवत्सल कर्ण ! यही मित्रों के कर्तव्यपालन का उपयुक्त अवसर आया है। क्रोध में भरे हुए पाण्जाल, मत्स्य, केकय तथा पाण्डव महारथी फुफकारते हुए सर्पोंके समान भयंकर हो उठे हैं। उनके चारों ओर से घिरे हुए मेरे समस्त महारथी योद्धाओं की आज तुम समंरागण में रक्षा करो । ’देखो, ये विजय से सुशोभित होनेवाले पाण्डव तथा इन्द्र के समान पराक्रमी बहुसंख्यक पाण्जाल महारथी कैसे हर्षोत्फुल्ल होकर सिंहनाद कर रहे है ?’ कर्ण उवाच कर्ण ने कहा- राजन् ! यदि साक्षात् इन्द्र यहां कुन्तीकुमार अर्जुन की रक्षा करने के लिये आ गये हों तो उन्हें भी शीघ्र ही पराजित करके मैं पाण्डुपुत्र अर्जुन को अवश्य मार डालूंगा । भरतनन्दन ! तुम धैर्य धारण करो। मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं कि युद्धस्थल में आये हुए पाण्डवों तथा पाण्जालों को निश्चय ही मारूंगा । जैसे अग्निकुमार कार्तिकेय ने तारकासुर का विनाश करके इन्द्र को विजय दिलायी थी, उसी प्रकार मैं आज तुम्हें विजय प्रदान करूंगा। भूपाल ! मुझे तुम्हारा प्रिय करना हैं, इसीलिये जीवन धारण करता हूं । कुन्ती के सभी पुत्रों ने अर्जुन ही अधिक शक्तिशाली हैं, अतः मैं इन्द्र की दी हुई अमोघ शक्ति को अर्जुन पर ही छोडूंगा । मानद ! महाधनुर्धर अर्जुन के मारे जाने पर उनके सभी भाई तुम्हारे वश में हो जायंगे अथवा पुनः वन में चले जायेगें । कुरूनन्दन ! तुम मेरे जीते-जी कभी विषाद न करो। मैं समरभूमि में संगठित होकर आये हुए समस्त पाण्डवों को जीत लुंगा । मैं अपने बाणसमूहों द्वारा रणभूमि में पधारे हुए पाण्जालों, केकयों और वृष्णिवंशियों के भी टुकडे-टुकडे करके यह सारी पृथ्वी तुम्हें दे दूंगा । संजय उवाच संजय कहते हैं- राजन् ! इस तरहकी बाते करते हुए सूतपुत्र कर्ण से शरद्वान् के पुत्र महाबाहु कृपाचार्य ने मुसकराते हुए-से यह बात कही- कर्ण ! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा ! राधापुत्र ! यदि बात बनाने से ही कार्य सिद्ध हो जाय, तब तो तुम-जैसे सहायकको पाकर कुरूराज दुर्योधन सनाथ हो गये । ’कर्ण ! तुम कुरूनन्दन सुयोधनके समीप तो बहुत बढ कर बातें किया करते हो। किंतु न तो कभी कोई तुम्हारा पराक्रम देखा जाता है और न उसका कोई फल ही सामने आता है । ’सूतनन्दन ! पाण्डुके पुत्रोंसे युद्धस्थलमें तुम्हारी अनेकों बार मुठभेड हुई है। परंतु सर्वत्र पाण्डवोंसे तुम्ही परास्त हुए हो । ’कर्ण ! याद है कि नहीं, जब गन्धर्व दुर्योधनको पकड-कर लिये जा रहे थे, उस समय सारी सेना तो युद्ध कर रही थी और अकेले तुम ही सबसे पहले पलायन कर गये थे । ’कर्ण ! विराट नगर में भी सम्पूर्ण कौरव एकत्र हुए थे; किंतु अर्जुन ने अकेले ही वहां सबको हरा दिया था। कर्ण ! तुम भी अपने भाइयों के साथ परास्त हुए थे । ’समंरागण में अकेले अर्जुन का सामना करने की भी तुम में शक्ति नहीं हैं; फिर श्रीकृष्ण सहित सम्पूर्ण पाण्डवों को जीत लेने का उत्साह कैसे दिखाते हो ?
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