महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 169 श्लोक 40-50
एकोनसप्तत्यधिकशततम (169) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
रणभूमि में घुड़सवार घुड़सवारों से और पैदल पैदल से भिड़कर परस्पर कुपित होते हुए भी एक दूसरे को लाँघकर आगे नहीं बढ़ पाते थे। उस रात्रि के समय दौड़ते, भागते और पुनः लौटते हुए सैनिकों का महान् कोलाहल सुनायी पड़ता था। महाराज! रथों, हाथियों और घोड़ों पर जलती हुई मशालें आकाश से गिरी हुई बड़ी-बड़ी उल्काओं के समान दिखायी देती थीं। भरतभूषण नरेश! प्रदीपों से प्रकाशित हुई वह रात्रि युद्ध के मुहाने पर दिन के समान हो गयी थी। जैसे सूर्य के प्रकाश से सम्पूर्ण जगत् में फैला हुआ अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार इधर-उधर जलती हुई मशालों से वहाँ का भयानक अँधेरा नष्ट हो गया था। धूल और अन्धकार से व्याप्त आकाश, पृथ्वी, दिशा और विदिशाएँ प्रदीपों की प्रभा से पुनः प्रकाशित हो उठी थीं। महामनस्वी योद्धाओं के अस्त्रों, कवचों और मणियों की सारी प्रभा उन प्रदीपों के प्रकाश से तिरोहित हो गयी थी। भारत! उस रात्रि के समय जब वह भयंकर कोलाहलपूर्ण संग्राम चल रहा थ, तब योद्धाओं को कुछ भी पता नहीं चलता था। वे अपने आपे विषय में भी यह नहीं जान पाते थे कि ‘मैं अमुक हूँ’। भरतश्रेष्ठ! उस समरागंण में मोहवश पिता ने पुत्र का वध कर डाला और पुत्र ने पिता का। मित्र ने मित्र के प्राण ले लिये। मामा ने भानजे को मार डाला और भानजे ने मामा को।अपने पक्ष के योद्धा अपने ही सैनिकों पर तथा शत्रुपक्ष के सैनिक भी अपने ही योद्धाओं पर परस्पर घातक प्रहार करने लगे। इस प्रकार रात्रि में वह युद्ध मर्यादारहित होकर कायरों के लिये अत्यन्त भयानक हो उठा।
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