महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 23 श्लोक 46-58

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तेईसवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: तेईसवां अध्याय: श्लोक 52-80 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर! चोरों और भयसे पीड़ित होकर आये हुए जो याचक केवल भोजन चाहते है। उन्हें दिया हुआ दान महान् फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है। जिसके मनमें किसी तरहका कपट नहीं है, अत्यन्त दरिद्रताके कारण जिसके हाथमें अन्न आते ही उसके भूखे बच्चे ’मुझे दो,’ मुझे दो’ ऐसा कहकर मांगने लगते हैं; ऐसे निर्धन ब्राहमण और उसके उन बच्चोंको दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है। देशमें विप्लव होनेके समय जिनके धन और स्त्रियां छिन गयी हों; वे ब्राहमण यदि धनकी याचनाके लिये आये तो उन्हें दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है। जो व्रत और नियममें लगे हुए ब्राहमण वेदशास्त्रोंकी सम्मतिके अनुसार चलते है और अपने व्रतकी समाप्ति लिये धन चाहते हैं, उन्हें देनेसे महान् फलकी प्राप्ति होती है। जो पाखण्डियोंके धर्मसे दूर रहते हैं, जिनके पस धनका अभाव है तथा जो अन्न न मिलनेके कारण दुर्बल हो गये हैं, उनको दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है। जो विद्वान् पुरूष व्रतोंका कारण, गुरूदक्षिणा, यज्ञदक्षिणा तथा विवाह के लिये धन चाहते हों, उन्हें दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है। जो माता-पिताकी रक्षाके लिये, स्त्री-पुत्रोंके पालन तथा महान् रोगोंसे छुटकारा पानेके लिये धन चाहते हैं, उन्हें दिया हुआ महान् फलदायक होता है। जो बालक और स्त्रियां सब प्रकारके साधनोंसे रहित होनेके कारण केवल भोजन चाहती हैं, उन्हं भोजन देकर दाता स्वर्गमें जाते है। वे नरकमें नहीं पड़ते है।। प्रभावशाली डाकुओंने जिन निर्दोष मनुष्योंका सर्वस्व छीन लिया हो, अतः जो खानेके लिये अन्न चाहते हों, उन्हें दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है। जो तपस्वी और तपोनिष्ठ हैं तथा तपस्वी जनोंके लिये ही भीख मांगते हैं, ऐसे याचक यदि कुछ चाहते हैं तो उन्हें दिया हुआ दान महान् फलदायक होता है। भरतश्रेष्ठ! किनको दान देनेसे महान् फलकी प्राप्ति होती है, यह विषय मैंने तुम्हें सुना दिया अब जिन कर्मोसे मनुष्य नरक या स्वर्गमें जाते हैं, उन्हें सुनो। युधिष्ठिर! गुरूकी भलाईके लिये तथा दूसरेको भयसे मुक्त करनेके लिये जो झूठ बोलनेका अवसर आता हैं, उसे छोड़कर अन्यत्र जो झूठ बोलते हैं वे मनुष्य निश्चय ही नकरगामी होते हैं। जो दूसरोंकी स्त्री चुरानेवाले, परायी स्त्रीकी सतीत्व नष्ट करनेवाले तथा दूत बनकर परस्त्रीको दूसरोंसे मिलानेवाले हैं, वे निष्चय ही नरकगामी होते हैं। जो दूसरोंके धनको हड़पनेवाले और नष्ट करनेवाले हैं तथा दूसरोंकी चुगली खानेवाले हैं, उन्हें निश्चय ही नरक में गिरना पड़ता है। भरतनन्दन! जो पौंसलों, सभाओं, पुलों ओर किसीके घरोंको नष्ट करनेवाले हैं, वे मनुष्य निश्चय ही नरकमें पड़ते हैं। जो लोग अनाथ, बूढ़ी,तरूणी, बालिका, भयभीत और तपस्विनी स्त्रियोंको धोखेमें डालते हैं, वे निष्चय ही नरकगामी होते है। भरतनन्दन! जो दूसरोंकी जीविका नष्ट करते , घर उजाड़ते, पति-पत्नीमें विछोह डालते, मित्रोंमें विरोध पैदा करते और किसीका आशा भंग करते हैं, वे निश्चय ही नरकमें जाते है। जो चुगली खानेवाले, कुल या धर्मकी मर्यादा नष्ट करनेवाले, दूसरोंकी जीविकापर गुजारा करनेवाले तथा मित्रोंद्वारा किये गये उपकारको भूला देनेवाले हैं, वे निश्चय ही नरकमें पड़ते हैं। जो पाखण्डी, निन्दक, धार्मिक नियमोंके विरोधी तथा एक बार संन्यास लेकर फिर गृहस्थ-आश्रममें लौट आनेवाले हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते है। जिनका व्यवहार सबके प्रति समान नहीं है तथा जो लाभ और वृद्धिमें विषम दृष्टि रखते हैं-ईमानदारीसे उसका वितरण नहीं करते हैं, वे अवश्य ही नरकगामी होते हैं। जो किसी मनुष्यकी परख करनेमें समर्थ नहीं हैं और दूतका काम करते हैं, जिनकी सदा जीवहिंसामें प्रवृति होती है, वे निश्चय ही नरकमें गिरते है। जो वेतनपर रखेहुए परिश्रमी नौकरको कुछ देनेकी आशा देकर और देनेका समय नियत करके उसके पहले ही भेदनीतिके द्वारा उसे मालिकके यहांसे निकलवा देते हैं, वे अवष्य ही नरकमें जाते है। जो पितरों और देवताओं यजन-पूजनका त्याग करके अग्निमें आहुति दिये बिना तथा अतिथि, पोष्यवर्ग और स्त्री-बच्चोंको अन्न दिये बिना ही भोजन कर लेते हैं, वे नि-संदेह नरकगामी होते हैं। जो वेद बेचते हैं, वेदोंकी निन्दा करते हैं और विक्रयके लिये ही वेदोंके मंत्र लिखते हैं, वे भी निश्चय ही नरकगामी होते हैं। जो मनुष्य चारों आश्रमों और वेदोंकी मर्यादासे बाहर है तथा शास्त्रविरूद्ध कर्मोसे ही जीविका चलाते हैं, उन्हें निश्चय ही नरकमें गिरना पड़ता है। राजन्! जो (ब्राह्मण) केश, विष और दूध बेचते हैं, वे भी नरकमें ही जाते है। युधिष्ठिर! जो ब्राह्मण, गौ तथा कन्याओंके लिये हितकर कार्यमें विध्न डालते हैं, वे भी अवश्य ही नरकगामी होते हैं। राजा युधिष्ठिर! जो (ब्राह्मण) हथियार बेचते और धनुष-बाण आदि शास्त्रोंको बनाते हैं, वे नरकगामी होते है। भरतश्रेष्ठ! जो पत्थर रखकर, कांटे बिछाकर और गढे खोदकर रास्ता रोकते हैं, वे भी नरकमें ही गिरते हैं। भरतभूषण! जो अध्यापकों, सेवकों तथा अपने भक्तोंको बिना किसी अपराधके ही त्याग देते हैं, उन्हें भी नरकमें ही गिरना पड़ता है। जो काबूमें न आनेवाले पशुओंका दमन करते, नाथते अथवा कटघरमें बंद करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। जो राजा होकर भी प्रजाकी रक्षा नहीं करते और उसकी आमदनीके छठे भागन को लगानके रूपमें लूटते रहते हैं तथा जो समर्थ होनेपर भी दान नहीं करते, उन्हें भी निःसंदेह नरकमें जाना पड़ता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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