महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-18

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दशम (10) अध्याय: आश्रमवासिकापर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिकापर्व: दशम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
प्रजा की ओर से साम्ब नामक ब्राह्मण का धृतराष्ट्र को सान्त्वनापूर्ण उत्तर देना

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! बूढे़ राजा धृतराष्ट्र के ऐसे करूणामय वचन कहने पर नगर और जनपद के निवासी सभी लोग दुःख से अचेत से हो गये। उन सबके कण्ठ आँसुओं से अवरूद्ध हो गये थे; अतः वे कुछ बोल नहीं पाते थे । उन्हें मौन देख महाराज धृतराष्ट्र ने फिर कहा -‘सज्जनों ! मैं बूढ़ा हूँ । मेरे सभी पुत्र मार डाले गये हैं। मैं अपनी इस धर्मपत्नी के साथ बारंबार दीनतापूर्वक विलाप कर रहा हूँ । मेरे पिता स्वयं महर्षि व्यास ने मुझे वन में जाने की आज्ञा दे दी है । धर्मज्ञ पुरूषो ! धर्म के ज्ञाता राजा युधिष्ठिर ने भी वनवास के लिये अनुमति दे दी है । वही मैं अब पुनः बारंबार आपके सामने मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । पुण्यात्मा प्रजाजन ! आप लोग गान्धारी सहित मुझे वन में जाने की आज्ञा दे दें’। वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! कुरूराज की ये करूणा भरी बातें सुनकर वहाँ एकत्र हुए कुरूजांगल देश के सब लोग दुपट्टों और हाथों से अपना अपना मुँह ढँककर रोने लगे । अपनी संतान को विदा करते समय दुःख से कातर हुए पिता-माता की भाँति वे दो घड़ी तक शोक से संतप्त होकर रोते रहे। उनका हृदयस शून्य सा हो गया था। वे उस सूने हृदय से धृतराष्ट्र के प्रवासजनित दुःख को धारण करके अचेत से हो गये। फिर धीरे धीरे उनके वियोगजनित दुःख को दूर करके उन सबने आपस में वार्तालाप किया और अपनी सम्मति प्रकट की। राजन् ! तदन्नतर एकमत होकर उन सब लोगों ने थोडे़ में अपनी सारी बातें कहने का भार एक ब्राह्मण पर रखा । उन ब्राह्मण के द्वारा ही उन्होंने राजा से अपनी बात कही। वे ब्राह्मण देवता सदाचारी, सबके माननीय और अर्थ ज्ञान में निपुण थे, उनका नाम था साम्ब । वे वेद के विद्वान, निर्भय होकर बोलने वाले और बुद्धिमान थे । वे महाराज को सम्मान देकर सारी सभा को प्रसन्न करके बोलने को उद्यत हुए । उन्होनें राजा से इस प्रकार कहा -‘राजन् ! वीर नरेश्वर ! यहाँ उपस्थित हुए समस्त जनसमुदाय ने अपना मन्तव्य प्रकट करने का सारा भार मुझे सौंप दिया है; अतः मैं ही इनकी बातें आपकी सेवा में निवेदन करूँगा । आप सुनने की कृपा करें। ‘राजेन्द्र ! प्रभो ! आप जो कुछ कहते हैं, वह सब ठीक है । उसमें असत्य का लेश भी नहीं है । वास्तव में इस राजवंश में और हम लोगों में परस्पर दृढ़ सौहार्द स्थापित हो चुका है। ‘इस राजवंश में कभी कोई भी ऐसा राजा नहीं हुआ, तो प्रजापालन करते समय समस्त प्रजाओं को प्रिय न रहा हो। ‘आप लोग पिता और बडे़ भाई के समान हमारा पालन करते आये हैं । राजा दुर्योधन ने भी हमारे साथ कोई अनुचित बर्ताव नहीं किया है। ‘महाराज ! परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन महर्षि व्यास जी आपको जैसी सलाह देते हैं, वैसा ही कीजिये; क्योंकि वे हम सब लोगों के परम गुरू हैं। ‘राजन् ! आप जब हमें त्याग देंगे, हमें छोड़कर चले जायँगे, तब हम बहुत दिनों तक दुःख और शोक में डूबे रहेंगे । आपके सैकड़ों गुणो की याद सदा हमें घेरे रहेगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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